मान-सम्मान पर बट्टा | हिंदी कहानी | - Kavita Rawat Blog, Kahani, Kavita, Lekh, Yatra vritant, Sansmaran, Bacchon ka Kona
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गुरुवार, 22 अगस्त 2024

मान-सम्मान पर बट्टा | हिंदी कहानी |


दिन ढ़लने के बाद जहां गांव के लोग हर दिन की तरह अपनी खेती-पाती के काम से फुर्सत होकर अपने-अपने घरों में दुबके थे। वहीं उस गांव में एक ऐसा व्‍यक्ति भी था, जिसके पास कभी गांव के लोगों का तांता लगा रहता था, लेकिन आज वही अपने घर की चौखट पर अंधेरे में नितांत अकेला बैठा सोच में डूबा था। वह और कोई नहीं जगत बाबू था, जो कि शहर में नौकरी करते थे और कुछ दिन की छुट्टियां लेकर गांव आ रखे थे। उनका शहर में कर्म और गांव में आत्मिक रूप से हमेशा जुड़ाव रहा। उनका शहर से ग्राम सुधार के कार्योँ के कारण आना-जाना लगा रहता था। वे हर समय तन-मन और धन से समाज की सेवा में लगे रहते थे। उन्‍होंने अपने दम पर दौड़-धूप करके ऐसे-ऐसे काम करवाए जो बडे़ से बड़ा नेता भी नहीं करवा सकता था। उनके पास सच्चे अर्थ में एक नेता के सभी गुण थे,इसलिए सभी उन्‍हें उनके नाम से नहीं बल्कि नेता कहकर ही पुकारते और मानते थे। उनके द्वारा अपने गांव ही नहीं, अपितु आस-पास के दूरदराज़ के गांव में किये गए सामाजिक कार्यो की लम्बी-चौड़ी फहरिस्त थी। उन्होंने गांव में स्‍वास्‍थ्‍य समस्‍या के हल के लिए गांव के पास ही अस्पताल खुलवाया तो गांव में लोगों को दूर-प्रदेश में रहने वाले उनके घरवालों की खैर-खबर, रूपया-पैसा, चिट़ठी-पत्री आती-जाती रहे, इसके लिए पोस्‍ट-ऑफिस खुलवाया। गांव के नौनिहाल पढ़ने से वंचित न रहे, इसके लिए गांव में प्राइमरी स्कूल का निर्माण करवाया। गांव में आपसी मेल-मिलाप और सामाजिक कार्य सुचारू रूप से चलते रहे, इसके लिए ग्रामवासियों के साथ मिलकर पंचायत भवन का निर्माण करवाया।  सबकी  दृष्टि में वे एक प्रतिष्ठित व्यक्ति बन चुके थे। समाज की सेवा करना ही वे अपना कर्त्तव्य समझते थे। जगत बाबू अपने गांव की निस्वार्थ सेवा ही नहीं, अपितु आस-पास के सभी गांवों की हर संभव सेवा करने में पीछे नहीं रहे थे। वे इलाके के नेता कहते जाते थे। अभी कुछ समय पहले ही वे गर्मियों में गांव आए थे, लेकिन उन्‍हें फिर एक जरूरी काम से गांव आना पड़ा । 

हाल ही मे वे समाज सुधार के कार्यक्रम में सम्मिलिीत होकर गए थे, किन्तु फिर उन्हें एक जरूरी काम से गांव आना पड़ा। उनकी एक मात्र लड़की जो कुछ दिन से उनके साथ शहर गई थी। शहर की हवा को देखकर बहक गई तो जगत बाबू के आत्मसम्मान को बहुत ठेस पहुंची। क्या कुछ नहीं किया था उन्होंने अपनी इस बेटी के लिए। किन्तु सब व्यर्थ। उसने बदले में किया दिया, एक अमिट धब्बा। जिसके लग जाने पर वे अपने का अकेले महसूस करने लगे।

जगत बाबू अपने घर के बरामदे में कुर्सी पर बैठे-बैठे दूर-दूर तक फैली पहाड़ियों पर अपनी सूनी आंखे गड़ाये सूर्यास्त होने का नजारा देख रहे थे। सूरज पहाड़ियों के ऊंचे शिखर से धीरे-धीरे घाटी में अस्त होने जा रहा था।  आकाश में कुछ बादल उमड़-घुमड़ रहे थे, जो सूर्य की अन्तिम किरणों के पड़ने से रक्तरंजित दिखाई देने लगे थे। धीरे-धीरे सूर्यास्त हो चला। जगत बाबू फिर भी एकाग्रचित होकर, आंखों में शून्यता लिए हुए उसी ओर अपनी दृष्टि गड़ाये हुए थे, उन्हें अपने जीवन का सूर्य भी अस्त होता दिखाई दे रहा था। ऊंची-ऊंची पहाड़ियां सूरज अस्त होने के बाद भी काफी देर तक उसकी किरणों की आभा से चमक रहे थे। आकाश में कुछ भूरे तो कुछ काले बादल आपस में लुका-छिपी  खेल रहे थे।

धीरे-धीरे सब ओर अंधकार छाने लगा, लेकिन जगत बाबू वहीं अंधेरे में बैठे रहे। गांव में बिजली नहीं पहुंची थी और उनका इसी काम से गांव आना हुआ था। उन्हें नहीं पता था कि यहां आकर उनके गले कोई दूसरा काम अटक जायेगा, जिस कारण वे बड़े चिन्ति ही नहीं बड़े दुःखी हो हो गए थे। वे अपने घर से बाहर कदम रखने की हिम्मद नहीं जुटा पा रहे थे। समाज की दृष्टि में वे अब एक कलंकित पिता बनकर रह गए। वही समाज जिसके लिए वे दिन-रात सोचते रहे, उनके लिए अपना घरबार छोड़ सेवा करते रहे, आज उन्हें व्यंग्यबाणों की शैया पर सुलाने पर तुले हुए थे। समाज का यही तो दस्तूर है जो किसी को इतना विवश कर देता है कि वह स्वयं एकाकी जीवन जीने के लिए मजबूर हो जाता है। वे अंधकार में बैठे-बैठे जाने-क्या-क्या सोचे जा रहे थे कि उनका एक मित्र सुरेश दबे पांव लालटेन लेकर उनके सामने आया। जगत की निगाहें जैसे ही उस पर पड़ी तो वे झटके से कुर्सी से उठे और बौखला उठे-“ भाग जा कमीने यहां से, भाग जो मेरी आंखों के सामने से। तुमने मेरी अच्छाई का नाजायज फायदा उठाया। तेरे कारण आज मैं समाज में मुंह दिखाने के काबिल न रहा।“

उनकी बौखलाहट को नजरअंदाज कर सुरेश बोला-“ आखिर क्या हुआ? इतना क्यों चिल्ला रहे हैं तुम?“

“चिल्लाऊं नहीं तो और क्या करूं, आरती उतराऊं तेरी या फिर सिर फोडूं?“

“देखो, जो कुछ कहना हो साफ-साफ कहो। मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि आखिर ऐसी क्या बात है, जो तुम इतना बौखला रहे हो।“

“आयेगा भी कैसे तुम्हारी समझ में मिस्टर सुरेश।“

“क्या मतलब?“

“मिस्टर सुरेश पहेलियां मत बुझाओ। मैं तुम्हारी सब चाले समझता हूं। आग लगाकर उस पर पानी डालने का ढोंग करते हो? और फिर बड़ी बेशर्मी से आकर मुझसे कह रहे होे कि क्या हुआ। तू और तेरा बेटा धोखेबाज हो। मैं चाहूं तो तुम दोनों को सजा अभी दिला दूं, लेकिन मेरे जिगर के टुकड़े ने तुम जैसे इंसान के बेटे के साथ रहना मंजूर किया है तो इसलिए चुप हूं।“ जगत बाबू ने अपने भड़ास निकाली।

आखिर इतना अनर्थ भी क्या हो गया, जो तुम मुझे कोसते जा रहे हो?“ सुरेश ने अनजान बनते हुए कहा तो जगत बाबू का पारा चढ़ गया-“ अनर्थ और कोसने वाली बात तुम्हारी मुंह से अच्छी नहीं लगती है, अब तुम मेरे सामने की भूल से भी मत आ जाना। तुमने जो मेरी बेटी को अपने बेटे के साथ भगाने का खेलकर मेरे मान-सम्मान में जो बट्टा लगाए हैं न, उसे मैं मरते दम तक नहीं भूल सकता।“

“क्या बात करते हो यार, मैं तो खुद ही उस नालायक को ढूुंढ रहा हूँ। मेरी बात का यकीन करो, मैं कुछ नहीं जानता था इस बारे में।“ सुरेश ने सफाई दी तो जगत बाबू आग बबूला होकर बड़बड़ाने लगे-“तुम कुछ नहीं जानते? धोखेबाज हो तुम और तुम्हारा नालायक बेटा। तुमने मुझे अंधेरे में रखा, मैं अच्छे से जानता हूँ, उन दोनों को भगाने में तुम्हारा योगदान है, क्योंकि तुम जानते थे कि मेरी बेटी से अच्छी तेरे नालायक बेटे को नहीं मिलने वाली। क्या सोचा था तुमने मैं यह सब होने के कुछ समय बाद सबकुछ भूलकर अपनी जमीन जायदाद, रूपए-पैसा सबकुछ अपनी उस नासमझ इकलौती बेटी के नाम कर जाऊंगा। तू जानता था कि मेरी एक ही बेटी है और जो कुछ मेरा है एक दिन सब उसी का होना है। अरे तुझे इतना लालच ही था तो मुझसे आकर एक बार बात कर करके तो देख लेता। मेरा मान-सम्मान, नाम सब खाक में मिला दिया तुमने और तुम्हारे उस कमीने बेटे ने।“

जगत बाबू को सुरेश ने बहुत सफाई दी, लेकिन इसका जगत बाबू पर कोई असर नहीं हुआ उल्टा वह और भड़क उठते तो सुरेश ने अपनी लाललेन उठाकर अपने घर की राह पकड़ने में ही अपनी भलाई समझी।

सुरेश के वहां से चले जाने के बाद जगत बाबू वहीं अंधियारे में बैठकर सोचते-विचारते रहे। उसके मन में रह-रहकर कभी अपने जिगरी यार सुरेश तो कभी उसके बेटे के इस धोखे का गहरा दुःख हो रहा था। वह सोचता उसे क्या पता था कि एक दिन उसके आंगन में खेलने-कूदने वाला, उसके घर-परिवार में उसके बेटे जैसा रहने वाला लड़का एक दिन उसी के घर डाका डालकर उसका मान-सम्मान मिट्टी में मिला देगा। उसने कभी सपने में इस बात की कल्पना नहीं की थी कि एक दिन जीवन में ऐसा भी आयेगा जब उसके बचपन का साथी इस तरह उसके मान-सम्मान पर बट्टा लगाने में पीछे नहीं रहेगा। 

...Kavita Rawat