सिसकियों से गूँजा घर-घर, गैस ने जीवन था हारी।
भोपाल रोया, भोपाल टूटा,
जहरीली गैस ने जीवन लूटा।
बच्चों की आँखें सजल थीं, माँ की गोद हुई खाली।
हमीदिया में बिखरी करुण गाथा, दर्द की अंतिम लाली।
कितने सपने, कितनी साँसें,
रुक गईं उस रात की आँचें।
ओ धरती माँ, तेरी संतानें पुकारें,
न्याय मिले, अब न हों ऐसे हादसों के मारे।
प्रदूषण रोको, जीवन बचाओ,
मानवता का दीप जलाओ।
क्यों कारख़ाने बने ऐसे, आबादी के बीच रहे?
लापरवाही, नियम सोए, जन-जन ने दुःख सहे।
सत्ता मौन रही, सब खो गए,
मासूम सपने सब रो गए।
ओ धरती माँ, तेरी संतानें पुकारें,
न्याय मिले, अब न हों ऐसे हादसों के मारे।
प्रदूषण रोको, जीवन बचाओ,
मानवता का दीप जलाओ।
आज बरसी पर संकल्प है यह, जागृत हो यह जग हितकर।
भोपाल की पीड़ा याद रहे अब, सुरक्षित हो हर डगर।
हर प्रदूषण से जग बचाएँ,
जीवन-दीप को फिर से जलाएँ।
.... कविता रावत


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