एक बार आकर देख जा बेटे
घर को तेरा इन्तजार है
घर सारा बीमार है.
बाप के तेरे खांस-खांस कर
हुआ बुरा हाल है
छूटी लाठी, पकड़ी खटिया
बिन इलाज़ बेहाल है
तेरे नाम के रटन लगी
जान जर्जर सूखी डार है
घर सारा बीमार है.
घर सारा बीमार है.
बाप के तेरे खांस-खांस कर

छूटी लाठी, पकड़ी खटिया
बिन इलाज़ बेहाल है
तेरे नाम के रटन लगी
जान जर्जर सूखी डार है
घर सारा बीमार है.
भाई तेरा रोज दुकान पर खटता
देर रात नशे में धुत लौटता
उस पर किसी का जोर न चलता
नशे में भूला घर परिवार है
घर सारा बीमार है
यह निशानी पुरखों के घर की
वह भी अपनी नियति पर रोती है
झर-झर कर कंकाल बन बैठी
जाने कब तक साथ निभाती है?
जाने कब तक साथ निभाती है?
खंडहर हो रही हैं जिंदगियां
कहने भर को बचा यह संसार है
घर सारा बीमार है!
....कविता रावतगाँव मुझे हरदम अपनी ओर आकर्षित करते हैं। इसलिए जब भी मौका मिलता है निकल पड़ती हूँ भले ही दो-चार दिन के लिए ही सही। लेकिन जितने समय वहां रहती हूँ, कई घर-परिवारों की दशा देखकर शहर में आकर भी मन वहीँ बार-बार भटकने लगता है. पिछली बार जब गाँव जाना हुआ तो गाँव के एक परिवार की दशा देख जब उसके परदेशी बेटे से जो 3 साल से घर नहीं आया था; हो सकता है उसकी भी कुछ मजबूरी रही होगी। उसकी माँ से मैंने अपने मोबाइल से बात करवाई तो वह माँ रुंधे कंठ से जिस तरह एक झीनी उम्मीद से अपना दुखड़ा सुना रही थी, वही बीते पलों की यादें व्यथित हो छलक उठे हैं कविता के रूप में..