
पिछले कुछ सालों के वर्षा औसत पर नजर डालते हैं तो इसमें थोड़ा- बहुत अन्तर जरूर आया है, लेकिन यह इतना भी कम नहीं हुआ है कि हम इन्द्रदेव को कोसने लगे। अब सवाल यह है कि आखिर गर्मी के मौसम में ही देश के लगभग सभी राज्यों में जल संकट खड़ा क्यों होता है? दरअसल इस स्थिति के लिए हम सभी जिम्मेदार हैं, जो नलों में पानी कम आने पर आक्रोश तो जता देते हैं, लेकिन हममें से कितने लोग ऐसे हैं जो मानसून के दौरान वर्षा जल को संरक्षित करने पर ध्यान देते हैं? कितनी राज्य सरकारें हैं जो पाँंच हजार की आबादी वाले शहरों में वर्षा जल को वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम के जरिए भूजल में पहुंचाने के लिए कदम उठा पाती हैं?
सच्चाई यह है कि जब गर्मी में पेयजल संकट पैदा होता है तो सरकारें हुंकार भरती हैं कि वर्षा जल संरक्षण के लिए वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम हर शहर व कस्बे में लागू किया जायेगा, लेकिन जैसे ही मानसून शुरू होने पर जल की मांग कम होती हैं सभी बीती ताही बिसार दे कहकर लंबी तान सो जाते हैं। क्या नीतियां लागू करने वाली सरकारों के इस रवैए, बढ़ती जनसंख्या, बेतरतीब बढ़ते शहरों व भूजल के अनियंत्रित अंधाधुन्ध दोहन से जल संकट पर काबू किया जा सकता है? बेहद आसान सा तरीका है कि मानसून के दौरान शहरी क्षेत्रों में हर छत पर गिरने वाले जल को भूजल में पहुंचाने के लिए प्रत्येक नागरिक प्रभावी भूमिका निभाएं। इसके अलावा सभी राज्य सरकारों को चाहिए कि वे जल संरक्षण के लिए वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम बनाने वाले प्रत्येक नागरिक की आर्थिक सहायता करें। जल संरक्षण के बडे स्रोत जैसे- बांध, तालाब व सरोवर में जल लेकर आने वाली नदियों तथा बरसाती नदी-नालोें के मार्ग में खड़े हो चुके अवरोधों को जन सहयोग से हटाएं।
इस दिशा में वाजपेयी सरकार की उस नदी जोड़ परियोजना पर भी अमल किया जा सकता है, जिसके तहत हर साल मानसून के दौरान बाढ़ का सामना करने वाले बिहार जैसे राज्यों को जल सूखा प्रभावित राजस्थान, मध्यप्रदेश जैसे राज्यों में नहरों के माध्यम से लाने की योजना पर कदम बढ़ाये गये थे, जिसे सत्ता परिवर्तन के बाद ठण्डे बस्ते में डाल दिया गया। सच में यदि हम इस दिशा में कदम बढ़ाए तो कोई कारण नजर नहीं आता कि हमारे द्वारा पैदा किए गए जल संकट पर काबू नहीं पाया जा सके।
पानी का मोल समझाती नानी की कहानी
ज्यादातर परिवारों में पवित्र गंगाजल को अनमोल बताकर पानी की फिजूलखर्ची नहीं करने का संस्कार देने वाले हमारे बुजुर्ग ही होते हैं। लेकिन हम कहाँ समझ पाए थे गंगाजल की तरह पानी भी कंजूसी से उपयोग करने का संदेश। कोई गाय मौत के लिये छटपटा रही हो या मोहल्ले में किसी के यहाँ अंतिम सांसे गिन रहे किसी परिजन को गीता का अठारहवाँ अध्याय सुनाने के हालात बन रहे हों, उस परिवार का सदस्य जब कटोरी या भगौनी लेकर चला आता तब दरवाजा खटखटाने के साथ ही कौशल्या नानी कहकर आवाज लगाता और सारे हालात बताकर गंगाजल और तुलसी के पत्ते देने का अनुरोध करता। वे चुपचाप पूजाघर में जाती चंदन कुंकु के छींटे से रंग बिरंगी कांच की बोतल, चम्मच गमले के आसपास गिरे तुलसी के पत्ते लेकर उतरतीं, कटोरी में दो चम्मच गंगाजल डालकर तुलसी के पत्ते थमाकर दरवाजा बंद कर लेती। कटोरी में रखा गंगाजल वह अपने हाथों से गाय के मुँह में डालते हुए सीख देती कि तुम्हें गंगाजल की कीमत पता नहीं है, नीचे गिरा दोगे।
बचपन में जब कभी कोई रात-बिरात गंगाजल मांगने आता तो नानी की खटर-पटर से हमारी आंख खुल जाया करती। हम ऑंखें मींचकर देखते कि नानी के दो चम्मच गंगाजल देने के नियम में कोई बदलाव नहीं है तो हम कहते कि गंगाजल देने में कंजूसी क्यों? तो वे समझाती कि अभी तुम बच्चे हो, पानी का मोल तो तुम्हें पता नहीं है, गंगाजल का मोल क्या खाक समझोगे? तुम्हें मेरी कंजूसी तो नजर आती है, लेकिन तुम्हे यह थोड़ी पता है कि 20-25 साल पहले मैं इस गंगाजल को हरिद्वार से कितने संकट झेलकर लाई हूँ।
हमारी अधिकांश घर-परिवारों में गंगाजल को अनमोल बताकर पानी की फिजूलखर्ची नहीं करने का संस्कार देने वाले हमारे यही बुजुर्ग ही होते हैं, लेकिन हम कहां समझ पाये गंगाजल की तरह पानी का भी कंजूसी से उपयोग करने का संदेश। दशकों पूर्व जब हर घर में निजी नल कनेक्शन भी नहीं होते थे, तब सार्वजनिक नल से जैसे ही सुबह-शाम एक-आध घंटे पानी आता तो घर-मोहल्ले के लोग अपने प्लास्टिक, पीतल, स्टील आदि के खाली बर्तन-भांडे, डब्बे या घड़े लेकर कतार में खड़े होकर, लड़ाई-झगड़ा करते, जैसे-तैसे पानी भर पाते।
क्या यह आश्चर्य की बात नहीं कि हमारी आस्था के प्रतीक गंगाजल के मोल को समझाती सदियों से चली परम्परा के बाद भी हम आज तक पानी का मोल क्यों नहीं समझ पा रहे हैं? हम स्वयं के बजाय पानी बचाने की अपेक्षा पड़ोसी से ही क्यों करते हैं?
संकलित
23 टिप्पणियां:
सुन्दर ..
सार्थक शोधपरक आलेख
नानी का पानी बचाने का संदेश आज भी प्रासंगिक है लेकिन बिडंबना हैं कि आज लोग बाग़ यह बात समझ नहीं पाते ...
बहुत अच्छा सामयिक प्रस्तुतीकरण
सही कहा आपने। इतनी श्रद्धा के बाद भी लोग पानी की बचत का संव्यवाहर नहीं करते।
जल ही जीवन है
जल संरक्षण पर केवल बात ही होती है जो दुखद है।
गर्मी में हाय तौबा होने पर सरकारों की नींद खुलती तो है लेकिन जैसे ही बरसात का सीजन आया तो मामला ठन्डे बस्ते में बंद .................
जल संरक्षण पर बहुत उपयोगी लेखन ................
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 28-05-2015 को चर्चा मंच पर चर्चा - 1989 में दिया गया है
धन्यवाद
जल है तो कल है
पानी के एक-एक बूँद अनमोल है
निसन्देह जल है तो जग है।
बहुत खूब , शब्दों की जीवंत भावनाएं... सुन्दर चित्रांकन
कभी यहाँ भी पधारें
अच्छा आलेख...वाकई हमें पानी का मोल समझना होगा
Water is money save it.
सार्थक प्रस्तुति!
सार्थक प्रस्तुति!
वाकई पानी है अनमोल उसका मों जाने
bahut sundar
विचारणीय और सार्थक आलेख ... जल को बचाने के सभी उआय अपने और सभी को लागू करना चाहिए अपने ऊपर ... पानी के बिना जीवन की कल्पना बेकार है और शायद आने वाले युद्ध भी पानी के लिए ही लडे जाने हैं ... ये अनमोल है आज इसे कोई समझ नहीं पा रहा है ... सच है की अटल जी की सोच औ उसके आगे भी युद्ध स्तर पर जल को बचाने के प्रयास होने चाहियें ...
सुंदर, सार्थक और विचारणीय आलेख...बिन पानी सब सून, वर्षों पुराना यह दोहा सच साबित होता दिख रहा है. जल जीवन का सार है. जल के बिना जीवन की कल्पना ही नहीं की जा सकती है. प्राणी कुछ समय के लिए भोजन के बिना तो रह सकता है लेकिन पानी के बिना नहीं. एक रिपोर्ट के अनुसार भारत 2025 तक जल संकट वाला देश बन जाएगा. यदि जल संस्थानों का संचालन बेहतर ढंग से किया जाए तो इस समस्या से कुछ हद तक निपटा जा सकता है.
पानी बचाने की अपेक्षा पड़ोसी से ही क्यों करते हैं?
हम हमेशा अपेक्षा ओरों से करते हैं
VERY MEANINGFUL TOWARDS CONSERVATION OF NATURAL RESOURCES LIKE WATER .
आपकी इस पोस्ट की चर्चा कल 8/11/2015 को हिंदी चर्चा ब्लॉग पर की जाएगी ।
चर्चा मे आपका स्वागत है ।
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