फिर भी सुनाने बैठ जाती है अक्सर
ये जानते हुए भी कि
अब नहीं कोई उनकी सुनने वाला
फिर भी जब तब सुनाने से बाज नहीं आती
भले ही किसी के कान में जूं रेंगे या न रेंगें
बस एक बार शुरू क्या हुई कि
सुनाती चली जाती है
सुनाती चली जाती है
कितनी अबोध है दादी मां
भूल जाती है कि
अब उनके सुनाने के दिन लद चले
उनकी बारी खत्म हो चली है
लेकिन मानने को तैयार नहीं
इतनी सी बात समझती नहीं कि
एक उम्र होती है सुनाने की
और फिर एक उम्र आती है सुनने की
इसे जो जितनी जल्दी समझ जाय
उतनी उसकी सेहत के लिए भली होती है
... कविता रावत