आज भले ही दीपावली में चारों ओर कृत्रिम रोशनी से पूरा शहर जगमगा उठता है, लेकिन मिट्टी के दीए बिना दिवाली अधूरी है। मिट्टी के दीए बनने की यात्रा बड़ी लम्बी होती है। इसकी निर्माण प्रक्रिया उसी मिट्टी से शुरू होती है, जिससे यह सारा संसार बना है। यह मिट्टी रूप में भूमि पर विद्यमान रहती है, लेकिन एक दिन ऐसा भी आता है, जब कोई इसे कुदाल से खोदता है और फिर बोरे में भरकर गधे की पीठ पर लाद देता है। इस दौरान वह अनायास ही मिलने वाली सवारी का आनंद तो लेता है, लेकिन उसका मन अपने भावी जीवन के संबंध में शंकाकुल भी रहता है। उसकी यह शंका निर्मूल नहीं होती। गधे की पीठ से उतार कर उसे कुम्हार (प्रजापति) के आंगन में उंडेला जाता है। फिर बोरे से बाहर निकलते ही डंडे के प्रहार से उसके कण-कण को अलग कर दिया जाता है। कुछ देर धूप में सूख जाने पर पुनः पिटाई शुरू हो जाती है। एकदम महीन पिस जाने पर छलनी की सहायता से इससे सभी कंकड़ अलग कर दिए जाते हैं। इसके बाद पानी डालकर उसे गूंथा जाता है। पानी के मिश्रण से वह कुछ शांति का अनुभव कर रहा होता है कि फिर डंडे से तब तक उसकी पिटाई होती रहती है, जब तक कि वह गूंथे हुए मैदे की तरह बिल्कुल कोमल नहीं हो जाता। इसके बाद कुम्हार इसे चाक पर रखकर अपने कुशल हाथों से एक-एक कर उसके जैसे सैंकड़ों दीयों का निर्माण करता है और सुखाने के लिए खुले स्थान पर रख देता है। वह खुश होता है और सोच रहा होता है कि अब उसे कष्टों से मुक्ति मिल गई है। किन्तु एक दिन जब उसे ढ़ेर के रूप में एकत्र कर घास-फूस और उपलों से ढक दिया जाता है, तो उसका मन फिर आशंका से भर उठता है। वह सोच ही रहा होता है कि अब न जाने क्या विपत्ति आने वाली है कि उसे धुएं की दुर्गन्ध और आग की तपन अनुभव होती है, कुम्हार घास-फूंस और उपलों में आग लगा चुका होता है। धीरे-धीरे धुंआ और तपन बढ़ती है तो वह असहनीय वेदना का अनुभव करता है। आग शांत होने पर जब उसे राख के ढेर से बाहर निकाला जाता है, तब वह अपना रूप देखकर प्रसन्न हो उठता है। उसे अपना वर्ण लाल और शरीर परिपक्व दिखता है।
इतना सबकुछ होने के बाद भी उसका जीवन अपूर्ण रहता है, क्योंकि वह पात्र रूप ही होता है। पूर्ण दीया बनने के लिए उसे अन्य सहयोगियों की आवश्यकता होती है। ऐसे में तेल/घी और रुई की बाती उसके सहयोगी बनते हैं। इसके पश्चात् अग्निदेव बाती को जलाकर उसे प्रज्ज्वलित दीया का रूप देता है। फिर यह वही दीप्त होने वाला और प्रकाश-दीप होता है, जिसके बिना सभी मंगल-कार्य अधूरे होते हैं। मन्दिर में भगवान की प्रतिमा की पूजा हो, गृह-प्रवेश हो, व्यापार का शुभारम्भ हो अथवा पाणिग्रहण-संस्कार की वेला हो, सर्वत्र उसे सम्मुख रखकर अर्चना की जाती है। उसकी उपस्थिति में ही भगवान् भक्तों को वरदान देकर उसका महत्व बढ़ाते हैं। अनेक मांगलिक कार्यों में उसे ही देवतुल्य मानकर अक्षत-कुंकुम से पूजा जाता है।
भारत के महान् पर्व ‘दीपावली’ के अवसर पर उसका महत्व स्पष्ट रूप से प्रकट होता है। यह पर्व बताता है कि मानव अपने हार्दिक उल्लास को व्यक्त करने के लिए दीए जलाते हैं । एक नहीं, अनेक दीए; दीपों की अवली (पंक्ति)-दीपावली से दीए की शक्ति का परिचय होता है, जो अमावस्या के घोर अंधकार को नष्ट करता है। अंधेरे में सबको राह दिखाना, अंधकार से प्रकाश की ओर प्रेरित करना दीप का कर्तव्य है। वह बिना किसी फल की कामना के अपने कर्त्तव्य में रत रहता है। योगेश्वर भगवान कृष्ण ने गीता में निर्दिष्ट ‘निष्काम-कर्म‘ की प्रेरणा संभवतः दीए के इसी निष्काम-कर्म से ही ली हो। वह सबको सीख देता है कि जब तब मानव का स्नेह-रूपी तेल और भावना-रूपी बाती उसके अंदर विद्यमान रहेगी, तब तक वह अपने कर्त्तव्य-पथ से विमुख नहीं होगा। सच्चाई यह है कि जैसे बिना आत्मा के शरीर निष्प्राण है, उसी प्रकार बिना मानवीय स्नेह के वह भी मात्र मिट्टी का पात्र होगा, निष्प्राण रहेगा। एक दीए को आज भी गर्व है कि उसके जीवन से भारतीयों को प्यार है। उसे भारतीय-संस्कृति और सभ्यता का प्रतीक माना जाता है।
मिट्टी के दीए की कहानी की तरह ही इसे बनाने और बेचने वाले गरीबों की भी कहानी कुछ इसी तरह रहती है। वे भी कड़ाके की गर्मी हो या सर्दी, चुपचाप सहन करते हैं , इसी आस में कि उनके पास खरीदार आएंगे और उनके घर को भी उजियारा करेंगे। आइए हम सभी लोग भी भारतीय संस्कृति को जीवंत बनाए रखने के लिए मिट्टी के दीए खरीदें और अपना घर रोशन कर सबके घरों तक इसकी रौशनी फैलाएं।
मिट्टी के दीए की कहानी की तरह ही इसे बनाने और बेचने वाले गरीबों की भी कहानी कुछ इसी तरह रहती है। वे भी कड़ाके की गर्मी हो या सर्दी, चुपचाप सहन करते हैं , इसी आस में कि उनके पास खरीदार आएंगे और उनके घर को भी उजियारा करेंगे। आइए हम सभी लोग भी भारतीय संस्कृति को जीवंत बनाए रखने के लिए मिट्टी के दीए खरीदें और अपना घर रोशन कर सबके घरों तक इसकी रौशनी फैलाएं।
18 टिप्पणियां:
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 21 अक्टूबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
Dhanyavad
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (22-10-2019) को " सभ्यता के प्रतीक मिट्टी के दीप" (चर्चा अंक- 3496) पर भी होगी।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत सुंदर सराहनीय लेख।
सुन्दर। शुभकामनाएं।
कविता दी,मिट्टी के दिए बनने की प्रक्रिया को बहुत ही रोचक तरीके से प्रस्तुत किया हैं आपने।
माटी के दिये माटी के तन और आभासित मन को व्यक्त करते हं -उस शान्त-सौम्य प्रकाश की बात ही अलग है ,सामाजिक महतो है ही.
प्रशंसनीय प्रस्तुति
जी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना 23 अक्टूबर 2019 के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
सुंदर संकलन
बहुत सुंदर रचना
बेहतरीन और प्रेरणादायी लेख कविता जी। बिजली के बल्बों की लड़ियों में दीप की मांगलिकता और शुचिता कहाँ ?
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बहुत ज्ञानवर्धक आलेख
मिटटी के दिए प्रतीक हैं इंसानी जज्बे के ... अँधेरे में प्रकाश के आगमन के ...
कितनी लम्बी प्रक्रिया के बाद दिए बनते हैं और हम तेजी के इस समय में उनका महत्त्व, संघर्ष और जीवन का महत्त्व नहीं समझ पाते ... बहुत अच्छी पोस्ट ... आपको दीपों के इस पर्व की हार्दिक बधाई ...
मिट्टी के दियों के प्रयोग से प्रदूषण कम करने में भी सहायता मिलती है।
बहुत ही बेहतरीन लेख
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