आसुरी शक्ति पर दैवी-शक्ति की विजय का प्रतीक शक्ति की अधिष्ठात्री देवी दुर्गा के नवस्वरूपों की नवरात्र के पश्चात् आश्विन शुक्ल दशमी को इसका समापन ‘मधुरेण समापयेत’ के कारण ‘दशहरा’ नाम से प्रसिद्ध है। एक ओर जहाँ नवरात्र पूजा-पाठ का पर्व है, जिसमें की गई पूजा मानव मन को पवित्र तथा भगवती माँ के चरणों में लीन कर जीवन में सुख-शांति और ऐश्वर्य की समृद्धि करती है तो दूसरी ओर विजयादशमी धार्मिक दृष्टि से आत्मशुद्धि का पर्व है, जिसमें पूजा, अर्चना और तपोमय जीवन-साधना के साथ-साथ शक्ति के प्रतीक शस्त्रों का शास्त्रीय विधि से पूजन इसके अंग माने गए हैं। यह हमारी राष्ट्रीय शक्ति संवर्धन का दिन होने से राष्ट्रीय त्यौहार भी है। पर्व और त्यौहार हमारी भारतीय सांस्कृतिक एकता की आधारशिला होकर एकात्म दर्शन के साक्षी हैं। होली का हुडदंग, रक्षाबंधन की राखी, दशहरा का उल्लास तथा दीपावली व नवरात्र पूजन, रामनवमी और कृष्ण जन्माष्टमी मनाने के लिए लोग स्वप्रेरित होते हैं।
दशहरा असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता है। रावण के बिना दशहरा अधूरा है। कभी जब गांव में रामलीला का मंचन होता तो उसे देखने के लिए हम बच्चे बड़े उत्साहित रहते। पूरे 11 दिन तक आस-पास जहां भी रामलीला होती, हम जैसे-तैसे पहुंच जाते। किसी दिन भले ही नींद आ गई होगी लेकिन जिस दिन रावण का प्रसंग होता उस दिन उत्सुकतावश आंखों से नींद उड़ जाती। रावण को रामलीला में जब पहली बार मंच पर अपने भाई कुंभकरण व विभीषण के साथ एक पैर पर खड़े होकर ब्रह्मा जी की घनघोर तपस्या करते देखते तो मन रोमांचित हो उठता। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी प्रकट होकर उनसे वर मांगने को कहते तो वह भारी-भरकम आवाज में वरदान मांगते कि- 'हम काहू कर मरहि न मारे। वानर जात मनुज दोउ वारे। देव दनुज किन्नर अरु नागा। सबको हम जीतहीं भय त्यागा।" अर्थात हे ब्रह्मा जी, यदि आप मेरी तपस्या से प्रसन्न हैं तो मुझे यह वर दीजिये कि मैं देवता, राक्षस, किन्नर और नाग सबको निर्भय होकर जीतूं।" भगवान ब्रह्मा जी ‘तथास्तु’ कहकर अंतर्ध्यान होते तो दृश्य का पटाक्षेप हो जाता।
हमें अगले दृश्य में रावण वरदान पाकर अपनी शक्ति का प्रदर्शन कैलाश पर्वत पर करता दिखाई देते। जहाँ कैलाश पर्वत पर शिवजी और पार्वती जी विराजित रहते। वह एक हाथ से कैलास उठाने का यत्न कर कहता- "देखो ऐ लोगो तुम मेरे बल को, कैलाश परबत उठा रहा हूँ। सब देखें कौतुक नर और नारी, नर और नारी; कैलाश परबत उठा रहा हूँ।" और जैसे ही वह कैलाश पर्वत को उठाने के लिए जोर लगता है तो पार्वती डर जाती कि यह क्या हो रहा है तो शिवजी उन्हें समझाते कि यह सब रावण का काम है जो वरदान पाकर उदण्ड हो गया है और इसी के साथ वे अपनी त्रिशुल उठाकर कैलाश पर्वत पर गाड़ देते तो रावण बहुत देर तक "त्राहि माम्, त्राहि माम्" का करुण क्रंदन करने लगता जिसे सुन माता पार्वती भगवान शिव से उसे क्षमा कर देने को कहती। भोले शंकर अपना त्रिशूल उठाते तो वह अपना हाथ छुड़ाकर भाग खड़ा होता।
रामलीला मंचन के अगले दृश्य के लिए जैसे ही सींटी बजती और पर्दा खुलता तो वहाँ बेहूदे शक्ल-सूरत वाले राक्षस धमाल मचाते नजर आते, जिनकी उटपटांग, उलजुलूल बातें सुनकर कभी हँसी आती तो कभी-कभी डर भी लगता। इसी बीच जैसे ही रावण तेजी से मंच पर आकर इधर से उधर चहलकदमी कर गरज-बरसकर दहाड़ता कि- "ऐ मेरे सूरवीर सरदारो! तुम बंद कंदराओं में जाकर ऋषि-मुनियों को तंग करो। उनके यज्ञ में विध्न-बाधा डालो। यज्ञहीन होने से सब देवता बलहीन हो जायेंगे और हमारी शरण में आयेंगे। तब तुम सम्पूर्ण ब्रह्मांड का सुख भोगोगे।" तो राक्षसों के साथ हमारी भी सिट्टी-पिट्टी गोल हो जाती। राक्षसों का अभिनय देखते ही बनता वे ’जी महाराज’ ‘जी महाराज’ की रट लगाकर उसके आगे-पीछे इधर से उधर भागते, छुपते फिरते।
रावण का अगला लघु दृश्य सीता स्वयंवर में देखने को मिलता, जहांँ वह धनुष उठाने के लिए जैसे ही तैयार होता है तो बाणासुर आकर उसे टोकते हुए समझाईश देता कि-"न कर रावण गुमान इतना, चढ़े न तुमसे धनुष भारी, मगर धनुष को प्रभु वह तोड़े जिन्होंने गौतम की नारी तारी।" जिसे सुन रावण क्रोधित होकर उसे याद दिलाता कि- "चुप बैठ रह वो बाणासुर, इस दुनिया में बलवान नहीं, मैंने कैलाश पर्वत उठाया था, क्या मूर्ख तुझे याद नहीं?" इसी के साथ जब वह धनुष उठाने के लिए जैसे ही झुकता तो एक आकाशवाणी होती कि उसकी बहन को कोई राक्षस उठा ले जा रहा है। जिसे सुन "अभी तो वह जा रहा है ,लेकिन एक दिन वह सीता को अपनी पटरानी जरूर बनायेगा।" कहते हुए तेजी से भाग जाता है।
इसी तरह मारीच प्रसंग के बाद सीताहरण और फिर आखिर में युद्ध की तैयारी और फिर 11वें दिन राम-रावण युद्ध के दृश्य में रावण के मारे जाने के बाद भी हमारी आपस में बहुत सी चर्चायें कभी खत्म होने का नाम नहीं लेती। स्कूल की किताब में लिखा हमें भले ही याद न हो पाया हो, लेकिन रामलीला में किसका क्या रोल रहा, किसने क्या-क्या और किस ढंग से दमदार किरदार निभाया, इस पर हमारे आपसी संवाद स्कूल जाने और वापस घर पहुंँचने तक चलते-रहते, जो कई माह तक मुख्य चर्चा का विषय होता।
आज रामलीला तो देखने को नहीं मिलती लेकिन जब भी दशहरा मैदान में रावण का दहन देखने को मिलता है तो उसके दस मुखों पर कई बार ध्यान जरूर केन्द्रित हुआ है, जहाँ उसके दसों मुखों से कभी बोलने के बारे में जानने की जिज्ञासा हुई तो कुछ किताबें खंगालने से ज्ञात हुआ कि रावण को श्राप था कि जिस दिन वह अपने दस मुखों से एक साथ बोलेगा, उसी दिन उसकी मृत्यु सन्निकट होगी और वह बच नहीं पायेगा। इसीलिए वह बहुत सचेत रहता था। लेकिन कहा जाता है कि जब भगवान राम द्वारा समुद्र पर पुल बांध लेने का समाचार उसके दूतों ने उसे सुनाया तो वह जिस समुद्र को कभी नहीं बांध सका, इस कल्पनातीत कार्य के हो जाने पर विवेकशून्य होकर एक साथ अपने दस मुखों से समुद्र के दस नाम लेकर बोल उठा-
बांध्यो बननिधि नीरनिधि, जलधि सिंघु बारीस।
सत्य तोयनिधि कंपति, उदति पयोधि नदीस।।