माँ हूँ न, इसलिए माँ की छत्रछाया में इल्लू,टिल्लू और उनका एक छोटा प्यारा बच्चा ढिल्लू मजे में हैं। जब मैं उन्हें पिंजरे से बाहर निकालती हूँ तो साथ-साथ बग़ीचे में एक-दूसरे के पीछे उछलते-कूदते और खाते-पीते रहते हैं। हमारे अलावा उन तीनों का ख्याल रखने के लिए हमारा एक प्यारा ' गुटुरु ' भी हैं। वह भले ही उनकी जात-बिरादरी का नहीं है, फिर भी वे उससे कोई द्वेष नहीं रखते हैं, मिल-जुलकर रहते हैं, जिसे देख मन को बड़ी ख़ुशी मिलती है कि चलो कहीं तो भेदभाव देखने को नहीं मिल रहा है। अब आप सोच रहे होंगे की इल्लू-टिल्लू की जात-बिरादरी से दूर वाला ये तीसरा कौन है? यह है हमारा- 'गुटुरु' यानि कबूतर। यहीं उनका साथी है। इसकी भी एक अपनी अलग कहानी सुनते चलिए। कुछ दिन पहले जब वह बहुत छोटा था तो अपने माँ-बाप से बिछुड़कर वह पड़ोसियों के बगीचे में गिर पड़ा था, जिसका शिकार करने लिए कुछ कुत्ते उसके पीछे पड़ गए तो उन्होंने उसे बचाकर हमें सौंप दिया था। क्योँकि छोटे से कबूतर के बच्चे को कैसे खिलाना-पिलाना है, वे नहीं जानते थे। यदपि कबूतर के बच्चे को खिला-पिलाकर बड़ा करना हमारे लिए भी सरल काम नहीं था, फिर भी हमने इस चुनौती को स्वीकारा। इसके लिए हमने चने की दाल-चावल को भिगोया और फिर मिक्सर में पीसकर सिरिंज में डालकर उसे खिलाया-पिलाया। दो-तीन दिन बाद जब हमने देखा कि वह धीरे-धीरे खुद खाने लगा तो हम आश्वस्त हो गए कि चलो अब कोई दिक्कत वाली बात नहीं है तो हमने उसे इल्लू-टिल्लू के हवाले कर दिया। गुटुरु को हम भाग्यशाली मानते हैं क्योंकि उसके पहले २ घायल कबूतर के बच्चों को हम लाख कोशिश करने के बाद भी बचा नहीं पाए थे। जिसमें एक की गर्दन पतंग का माँजा फ़ँसने से टूटी हुई थी और दूसरे के पंजों में इधर-उधर लापरवाही से फेंकने वाले इंसानों के सिर के बाल लिपटे पड़े थे, जिसके कारण शायद वह उड़ नहीं पाया होगा और इधर-उधर गिर-पड़ कर उसे कहीं गहरी अंदरूनी चोट लगी रही होगी। इंसानी नादानी और लापरवाही इन बेजुवान पशु-पंछियों पर कितना भारी पड़ता है, यह अक्ल कुछ लोगों में जाने कब आएगी? अपने आँखों के सामने ऐसे बेजुवान पंछियों को मरता देख मन को बड़ा दुःख पहुँचता हैं। लेकिन इस बात की संतुष्टि जरूर मिलती कि कम से कम हम उन्हें बचाने की अपनी तरफ से पूरी कोशिश तो करते हैं।
आजकल हमारा गुटुरु भी बड़ा हो गया है और समझदार भी। वह सुबह-सुबह गुटुरु गुं, गुटुरु गुं कर पिंजरे से बाहर उड़ने के लिए हमें आवाज लगाता है और जब हम पिंजरे का दरवाजा खोल उसे छोड़ते हैं तो वह आस-पास की बिल्डिंग, पेड़ों में बैठकर मटर गस्ती करता मिलता है। उसे जब भी मटर गस्ती कर भूख सताने लगती है तो वह फ़ौरन कभी बगीचे में लगे नीम के पेड़ तो कभी हमारी खिड़की में आकर 'गुटुरु गुं-गुटुरु गुं' की रट लगता है। उसकी इस रट की भाषा को हम बखूबी समझने लगे हैं इसलिए उसके लिए छज्जे पर जैसे ही उसका खाना-पानी रखते हैं वह फुर्र से आकर उसपर अपना हक़ जमाकर बैठ जाता है। वह दिन भर आवारा बनकर घूमता-फिरता है और शाम को जैसे ही हम उसे 'गुटुरु-गुटुरु' बोलकर आवाज लगाते हैं वह जहाँ ही होगा वहीँ से पहले दो-चार बार 'गुटुरु गुं-गुटुरु गुं' करेगा और फिर फुर्र से उड़ते पिंजरे के गेट के आगे बैठकर उसके अंदर जाने के लिए उसके चक्कर काटने लगेगा और फिर जैसे हम पिंजरे का गेट खोलते हैं वह फ़ौरन जाकर इल्लू, टिल्लू के पास बैठ जाता है। उन तीनों को आराम से एक साथ मिल-जुलकर रहते देख मुझे बड़ी ख़ुशी मिलती हैं।
..कविता रावत