देखते-देखते भोपाल गैस त्रासदी के तीस बरस बीत गए। हर वर्ष तीन दिसंबर गुजर जाता है और उस दिन मन में कई सवाल हैं और अनुत्तरित रह जाते हैं। हमारे देश में मानव जीवन कितना सस्ता और मृत्यु कितनी सहज है, इसका अनुमान उस विभीषिका से लगाया जा सकता है, जिसमें हजारोें लोग अकाल मौत के मुँह में चले गए और लाखों लोग प्रभावित हुए। वह त्रासदी जहाँ हजारों पीडि़तों का शेष जीवन घातक बीमारियों, अंधेपन एवं अपंगता का अभिशाप बना गई तो दूसरी ओर अनेक घरों के दीपक बुझ गए। न जाने कितने परिवार निराश्रित और बेघर हो गये, जिन्हें तत्काल जैसी सहायता व सहानुभूति मिलनी चाहिए थी, वह नहीं मिली।
विकासशील देशों को विकसित देश तकनीकी प्रगति एवं औद्योगिक विकास और सहायता के नाम पर वहाँ त्याज्य एवं निरूपयोगी सौगात देते हैं। इसका सबसे बड़ा उदाहरण यूनियन कार्बाइड काॅरपोरेशन था, जिसके कारण हजारों लोग मारे गए, कई हजार कष्ट और पीड़ा से संत्रस्त हो गए लेकिन उनकी समुचित सहायता व सार-संभाल नहीं हुई। पीडितों को आखिरकार उचित क्षतिपूर्ति के लिए कानूनी कार्यवाही और नैतिक दबाव का सहारा लेना पड़ा। अगर अमेरिका में ऐसी दुर्घटना होती तो वहाँ की समूची व्यवस्था क्षतिग्रस्तों को हर संभव सहायता मुहैया कराकर ही दम लेती और उस कंपनी के खिलाफ कड़ी कार्यवाई होती। अमेरिका में ऐसे कई उदाहरण हैं, जिसमें जनजीवन को जोखिम में डालने और अनिष्ट के लिए जिम्मेदार कम्पनियों एवं संस्थानों ने करोड़ों डालरों की क्षतिपूर्ति दी। लेकिन गरीब देशों के नागरिकों का जीवन मोल विकसित देशों के मुकाबले अतिशय सस्ता आंका जाना इस त्रासदी के नतीजों और उसके बाद सरकारी रुख से समझ में आता है।
इस विभाीषिका से एक साथ कई मसले सामने आए, गंभीर सवाल उठे। अव्वल तो ऐसे जोखिम पैदा करने वाले कारखाने को घनी आबादी के बीच लगाने की अनुमति क्यों दी गई, जिसमें विषाक्त गैसों का भंडारण और उत्पादों में खतरनाक रसायन प्रयोग होता है। यह देश का सबसे विशाल कारखाना था, जिसमें हुई दुर्घटना ने सुरक्षा व्यवस्था और राजनीतिक सांठ-गांठ की पोल खोल दी। यह हादसा विश्व में अपने ढंग का पहला वाकया था। हालांकि तीन दिसंबर की विभीषिका से पहले भी संयंत्र में कई बार गैस रिसाव की घटनायें घट चुकी थी, जिसमें कम से कम दस श्रमिक मारे गए थे। दो-तीन दिसम्बर 1984 की दुर्घटना मिथाइल आइसोसाइनेट नामक जहरीली गैस से हुई। कहते हैं कि इस गैस को बनाने के लिए फोस जेन नामक गैस का प्रयोग होता है। फोसजेन गैस भयावह रूप से विषाक्त और खतरनाक है। कहा जाता है कि हिटलर ने यहूदियों के सामूहिक संहार के लिए गैस चेम्बर बनाये थे, उनमें वही गैस भरी हुई थी। ऐसे खतरनाक एवं प्राणघातक उत्पादनों के साथ संभावित खतरों का पूर्व आकलन और समुचित उपाय किए जाते हैं। मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अगर सुरक्षा उपाय के लिए ठोस कदम उठाए होते तो उस विभीषिका से बचा जा सकता था। पूर्व की दुर्घटनाओं के बाद कारखाने के प्रबंधन ने उचित कदम नहीं उठाए और शासन प्रशासन भी कर्त्तव्यपालन से विमुख व उदासीन बना रहा। तीस बरस बीत जाने पर भी दुर्घटना स्थल पर पड़े रासायनिक कचरे को अब तक ठिकाने न लगा पाना और गैस पीडि़तों को समुचित न्याय न मिल पाना शासन प्रशासन की कई कमजोरियों को उजागर करता है।
इस विभाीषिका से एक साथ कई मसले सामने आए, गंभीर सवाल उठे। अव्वल तो ऐसे जोखिम पैदा करने वाले कारखाने को घनी आबादी के बीच लगाने की अनुमति क्यों दी गई, जिसमें विषाक्त गैसों का भंडारण और उत्पादों में खतरनाक रसायन प्रयोग होता है। यह देश का सबसे विशाल कारखाना था, जिसमें हुई दुर्घटना ने सुरक्षा व्यवस्था और राजनीतिक सांठ-गांठ की पोल खोल दी। यह हादसा विश्व में अपने ढंग का पहला वाकया था। हालांकि तीन दिसंबर की विभीषिका से पहले भी संयंत्र में कई बार गैस रिसाव की घटनायें घट चुकी थी, जिसमें कम से कम दस श्रमिक मारे गए थे। दो-तीन दिसम्बर 1984 की दुर्घटना मिथाइल आइसोसाइनेट नामक जहरीली गैस से हुई। कहते हैं कि इस गैस को बनाने के लिए फोस जेन नामक गैस का प्रयोग होता है। फोसजेन गैस भयावह रूप से विषाक्त और खतरनाक है। कहा जाता है कि हिटलर ने यहूदियों के सामूहिक संहार के लिए गैस चेम्बर बनाये थे, उनमें वही गैस भरी हुई थी। ऐसे खतरनाक एवं प्राणघातक उत्पादनों के साथ संभावित खतरों का पूर्व आकलन और समुचित उपाय किए जाते हैं। मध्यप्रदेश प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड ने अगर सुरक्षा उपाय के लिए ठोस कदम उठाए होते तो उस विभीषिका से बचा जा सकता था। पूर्व की दुर्घटनाओं के बाद कारखाने के प्रबंधन ने उचित कदम नहीं उठाए और शासन प्रशासन भी कर्त्तव्यपालन से विमुख व उदासीन बना रहा। तीस बरस बीत जाने पर भी दुर्घटना स्थल पर पड़े रासायनिक कचरे को अब तक ठिकाने न लगा पाना और गैस पीडि़तों को समुचित न्याय न मिल पाना शासन प्रशासन की कई कमजोरियों को उजागर करता है।
26 टिप्पणियां:
अपने देश में ज्यातर चीजें राजनीति से प्रभावित हो कर ही होती हैं ... विशेष वर्ग को ध्यान में रख कर नीति और क़ानून का पालन होता है ... ऐसी विशेष लोग राजा सामान हैं जिनको आपम आदमी के दुःख से कोई फर्क नहीं पड़ता ... शर्म की बात है देश के लिए ३० सालों तक कोई न्याय के बारे में नहीं सोचता ...
गैस त्रासदी में मरने वाले अधिकांश बहुत गरीब लोग थे और गरीबों को समय से न्याय मिलने आशा करना फिजूल की बात है .. कहने तो भले ही क़ानून सबके लिए बराबर है ...
गैस पीड़ितों को ३० सालों तक कोई न्याय मिलना शासन प्रशासन की नाकामयाबियों की शर्मनाक दास्तान है................
कभी कभी सोचकर अफ़सोस होता है राजनितिक दल ऐसी जगह पर भी रजनीति करते है जहा उनको राजनीती करने के स्थान पर पीड़ित लोगो को न्याय के लिए एक जूट होना चाहिए . भोपाल त्रासदी ही बल्कि और भी अन्य कई उदाहरण हैं जहा पर पीड़ित लोग अब तक नाम आखो से न्याय की राह देख रहे हैं मुझे कहना तो नही चाहिए और न ही मैं ये कहूँगा की ऐसा कभी हो लेकिन कहना कास जिस दिन सांसद पर हमला हुआ था काश उस दिन २० ३० नेता मर ही जाते तब इनको आम जनता का दुःख समझ में आता खुद तो सेक्युरिटी के साथ घुमते हैं जनता की सुरक्षा का कोई इंतज़ाम नहीं
वास्तविक पीड़ित अधिकान्शत: उपेक्षित ही रह जाते हैं..
यह हमारी देश का दुर्भाग्य है की गरीब आदमी के सुनवाई कहीं नहीं हो पाती हैं ...
यह तब की अमरीका-भारत और राज्य सरकारों की मिली भगत थी वरना कभी दाऊ केमिकल्स से कचरा साफ़ करने के लिए फंड मांगने की पहल करने वाली केंद्रीय रसायन और उर्वरक मंत्रालय अचान २००८ में चुप क्यों हो गया था ?
बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (03-12-2014) को "आज बस इतना ही…" चर्चा मंच 1816 पर भी होगी।
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चर्चा मंच के सभी पाठकों को
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बेहद सटीक लिखा है....तीस बरस की टीस अब भी गहरी है.....और राहत कोई नहीं !
अनुलता
सत्य कहा है।
३० बरस की टीस अभी भी बहुत दूर है ...दुखद स्थिति है ..
सटीक सामयिक आलेख ...
बस यही कह सकती हूँ जिस तन लागे वही तन जाने |
बस यही कह सकती हूँ जिस तन लागे वही तन जाने |
दर्द अभी बहुत बाकी है ......ना इंसाफी गरीब के हिस्से ही आता है
हमारे देश में राजनीती हर क्षेत्र में हावी है, यहाँ आम जनता का दुःख दर्द नहीं देखा जाता , नेताओ और राजनीतिज्ञों को पैसे के बल पर खरीदा जाता है और उहमानसे मन चाहा काम लिया जाता है। यही आज तक हमारे देश की विडम्बना रही है।
सटीक सामयिकी .............
विकासशील देशों को विकसित देश तकनीकी प्रगति एवं औद्योगिक विकास और सहायता के नाम पर वहाँ त्याज्य एवं निरूपयोगी सौगात देते हैं, इसका सबसे बड़ा उदाहरण यूनियन कार्बाइड काॅरपोरेशन है, जिसके कारण हजारों लोग मारे गए, कई हजार कष्ट और पीड़ा से संत्रस्त हो गए लेकिन उनकी समुचित सहायता व सार-संभाल नहीं हुई, जिससे पीडितों को उचित क्षतिपूर्ति के लिए कानूनी कार्यवाही एवं नैतिक दबाव का सहारा लेना पड़ा। यदि अमेरिका में ऐसी दुर्घटना होती तो वहाँ की समूची व्यवस्था क्षतिग्रस्तों को यथेष्ट सहायता मुहैया कराकर ही दम लेती....
१०० टके की बात ....आज भी इस दर्द का माकूल हल नहीं निकाल पाये हम ..शर्मनाक है ..............
बहुत अच्छा ....
http://ctvbhopal.blogspot.in/ ब्लॉग पर यह पोस्ट लगा रहा हूँ ..
yah tantr ka ghinauna chehara hai....Bhopal ki gas trasadi koun bhool sakta hai ... itne varsh pashchaat nyaay na hona sharmnaak hai .... shayad inhe lagta hai jakhm bhar gya hoga jise itane lambe intzaar be nasoor bna diya hai. .... shradhanjali unlogo ko Jo iss haadase ke chapet me aaye aur hamare bich nhi rahe
इस देश में गरीब की जान सस्ती है।
यहाँ बस नेताओं की मस्ती है।।
आपकी तरह तमाम लोगों के सामने इसके सिवाय कोई चारा नहीं कि हृदय में वेदना लिए जीते रहें।
सही मंथन है। किसी की के लिए पीड़ांतक त्रासदी तो किसी के लिए व्यवसाय का माध्यम बनी भोपाल गैस कांड की घटना।
जो दर्द कल था आज भी वह बरकरार है..
सिर्फ नाम बदलते हैं रहती वही एक सी सरकार है..
भोपाल गैस त्रासदी हिन्दुस्तान के इतिहास में एक बड़ा हादसा था. इसमें न जाने कितनी जिंदगियाँ तबाह हो गयीं. लापरवाही से हुई यह त्रासदी एक शाप साबित हुई. इस हादसे से अब भी लोग उबर नहीं पाये हैं. त्रासदी का दंश लोग अभी तक झेल रहे हैं.
सशक्त झरोखा त्रासद अतीत का।
अमेरिका द्वारा प्रदत् पीड़ा।
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