
ओझल मंजिल लगता कदम-कदम पर फेरा है
जब- जब भी दिखा उगता सूरज ख़ुशी का
तब-तब मुझको गहन तम ने आकर घेरा है
हरतरफ वीरान पहाड़ियों से घिरी मैं
लगता इर्द-गिर्द कंटीली झाड़ियाँ उगी हैं
बचा पास मेरे एक धुंधला सा दर्पण
जो अब छोर- छोर से चटकने लगी है
चलती हैं मन में कभी तूफानी हवाएं
कभी इर्द-गिर्द काली घटायें घिरती हैं
कसते देख व्यंग्य मुस्कान किसी की
सीने में शूल सी चुभने लगती हैं
दीन-हीन दया की कोई पात्र नहीं मैं
फिर भी देख मुझ पर कोई दया जताता है
आहिस्ते से छिड़कते नमक छुपे घाव पर
नहीं कोई 'रिसते घाव' को सहलाता है.
...Kavita Rawat