गरीब का बेटा बना डॉक्टर । गरीबी में डॉक्टरी। - Kavita Rawat Blog, Kahani, Kavita, Lekh, Yatra vritant, Sansmaran, Bacchon ka Kona
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गुरुवार, 12 अक्तूबर 2023

गरीब का बेटा बना डॉक्टर । गरीबी में डॉक्टरी।


         डॉक्टर बनने का सपना लाखों बच्चे अपनी आंखों में पालते हैं, लेकिन डॉक्टर बनने की राह आसान नहीं है। पहले तो दिन-रात कठोर परिश्रम करके नीट की परीक्षा अच्छे अंक से पास करने के लिए एक कोचिंग से दूसरे कोचिंग की खाक छानते हुए तैयारी करते रहना और यदि अच्छे अंक आए तो ही सरकारी कॉलेज में दाखिला मिलेगा। कम अंक आने पर प्रायवेट कॉलेज मिलता है, जिसकी लाखों की भारी-भरकम फीस चुकाने के लिए तैयार रहना पड़ता है और ऐसी स्थिति में गरीब बच्चों की प्रायवेट मेडिकल कॉलेज में दाखिला लेने की हिम्मत ही नहीं होती है। बावजूद इसके आज भी कोई न कोई गुदडी का लाल प्रायवेट कॉलेज में दाखिला लेने का दुस्साहस करके अपने डॉक्टर बनने के सपने को पूरा कर लेता है। ऐसे बच्चे से प्रेरणा लेकर आगे कोई न कोई गरीब से गरीब, कंगाल से कंगाल बच्चा् भी डॉक्टर बनने का सपना देखकर उसे साकार करने की हिम्मत कर ही लेता है। ऐसे ही माउंटेन मैन' दशरथ मांझी की तरह एक और मांझी धर्मेन्द्र मांझी है, जिसने पहाड़ काटने जैसा कठिन शारीरिक परिश्रम तो नहीं किया, किन्तु उसने जिस तरह से पहले लगभग 8 वर्ष तक नीट परीक्षा की तैयारी की और फिर 6 वर्ष एम.बी.बी.एस. की कठिन पढ़ाई कर अपने जुनून और दृढ़ इच्छाशक्ति के दम पर 'मानसिक श्रम' कर डॉक्टर बनकर दिखा दिया।

       धर्मेन्द्र मांझी मध्यप्रदेश के होशंगाबाद जिले के एक छोटे से अति पिछड़े गाँव भारकच्छ कला का रहने वाला है। धर्मेंद्र मांझी एक बहुत ही गरीब परिवार से सम्बन्ध रखता है, जिसके माता-पिता दिहाड़ी-मजदूरी करके जैसे-तैसे अपने परिवार का पालन-पोषण करते हैं। उसके गाँव के सरकारी स्कूल में विज्ञान विषय न होने के कारण उसने दूसरे गाँव के स्कूल में प्रवेश लेकर दिहाड़ी-मजदूरी करके १२वीं पास की। डॉक्टर बनने के सपने को साकार करने के लिए तंगहाल परिवार वालों के लाख मना करने के बाद ही वह गांव से एक ट्रक के पीछे लटककर भोपाल चला आया। भोपाल में रहने का ठिकाना न होने के कारण धर्मेंद्र ने शुरुवाती कई वर्ष फुटपाथ, रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड, मंदिर में रहते हुए कई कोचिंग में एडमिशन पाने के लिए खाक छानी। एक कोचिंग ने उसे इस शर्त पर एडमिशन दिया कि वह कोचिंग की साफ़-सफाई, झाड़ू पोंछा करेगा। मरता क्या नहीं करता, कोचिंग की सबसे पीछे वाली बेंच में बैठकर सर्वदा विपरीत परिस्थितियों में रहकर उसने अपनी जिद्द,जुनून और दृढ़ इच्छाशक्ति के बलबूते लगभग 8 वर्ष मेडिकल प्रवेश परीक्षा नीट में अच्छे अंक लाने के लिए कठोर साधना की। वह निरन्तर मेरिट में आने के लिए सरकारी कालेज मिलने की आस लगाये कठोर परिश्रम करता रहा, ताकि वह सरकारी कालेज में दाखिला लेकर सरकारी अनुदान से अपनी एम.बी.बी.एस. की पढ़ाई पूरी कर सके। लेकिन इस दौरान मेडिकल प्रवेश परीक्षा के पैटर्न में बदलाव हुआ और नए नियमों के तहत जब उसने देखा कि उसकी उम्र अधिक होने से वह आगे प्रवेश परीक्षा के लिए पात्र नहीं होगा तो फिर कोई विकल्प न होने से उसे मजबूरन प्रायवेट मेडिकल काॅलेज चिरायु में प्रवेश लेना पड़ा। जहाँ प्रथम वर्ष की फीस चुकाने के लिए उसे अपने नाते-रिश्तेदार, जान-पहचान एवं दोस्तों से मांग कर, कर्जा ले-ले कर जैसे -तैसे फीस भरनी पड़ी। दूसरे वर्ष की फीस भी वह कुछ हितैशी, कुछ कॉलेज के डॉक्टर, दोस्त एवं जान-पहचान वालों के सहयोग से बमुश्किल भर पाया। आगे ढ़ाई वर्ष की फीस उससे सहानुभूति और गहरी सम्वेदना रखने वाले उसके निकट सहयोगियों के अथक प्रयास के बाद सरकारी योजना के अंतर्गत पिछड़े वर्ग के बच्चों को दी जाने वाली सुविधा पोस्ट मैट्रिक स्कालरशिप के माध्यम से बॉन्ड भरवाकर पूरी की गई। उसके बाद चिरायु हॉस्पिटल में ही एक वर्ष की निःशुल्क इंटर्नशिप पूरी की। धर्मेंद्र मांझी का डॉक्टर बनाने का सपना 30 जुलाई 2023 को पूरा होगा, क्योँकि इस दिन एमबीबीएस की डिग्री उसके हाथ में होगी। इस तरह से धर्मेंद्र मांझी ने अपने डॉक्टर बनने के सपने को साकार कर दिखाया है।

         धर्मेंद्र मांझी ने जिस तरह से तमाम कठिनाईयों का डटकर सामना करते हुए अपने डॉक्टर बनने का सपना साकार किया, वह आज की युवा पीढ़ी के लिए एक बहुत बड़ी सीख व प्रेरणा है। क्योंकि जहाँ सर्व सुविधा होने पर भी आज बहुत से बच्चे दो-तीन बार नीट परीक्षा पास करने में असफल होते देख आगे की तैयारी छोड़कर दूसरी राह चल पड़ते हैं, वहीं मांझी ने अपनी अकल्पनीय दयनीय आर्थिक और विकट परिस्थितियों के बावजूद हार नहीं मानी और मैदान में डटा रहा और कभी निराश नहीं हुआ। मांझी ने जैसे-तैसे कर आखिर में अपने बचपन के डॉक्टर बनने का सपना साकार कर दिखाया, जो समाज के सामने अपने आप में एक अनूठा उदाहरण है।

        हम यहाँ आपको बताना चाहते हैं कि मांझी के माँ-बाप दिहाड़ी-मजदूरी करते हैं। घर के नाम पर झुग्गी-झोपड़ी है, जहां उन्हें दो जून की रोटी जुटाना भी बड़ा मुश्किल होता है। ऐसे हालातों में वे धर्मेंद्र की आर्थिक सहायता नहीं कर सके, जिसके कारण वह अधिकांश समय एक ही समय का भोजन कर अपनी पढाई में जुटा रहा। धर्मेंद्र मांझी ने जिस तरह अपने बचपन के सपने को अधकचरी शिक्षा और गरीबी को ताक में रखकर भोपाल आकर तमाम कष्ट, यातनाएं, दुर्दिन, टूटन, बिखरन, हताशा-निराशा सब कुछ सहन कर, बिना राह भटके अपनी मंजिल को हासिल किया, वह आज के समय में उसके जैसे हजारो-लाखों गरीब बच्चों के लिए प्रेरणास्रोत बना है।

         धर्मेंद्र माझी ने कामयाब होकर यह बात साबित कर दी कि कठिन परिश्रम, धुन के पक्के, सहनशील, साहसी और निर्भीक व्यक्ति के लिए दुनिया में कोई भी काम असंभव नहीं है। सर्वथा विपरीत परिस्थितियों का डटकर सामना करने वाले ही एक दिन दुनिया के सामने अनूठा उदाहरण प्रस्तु‍त करते हैं।