नहीं कोई 'रिसते घाव' को सहलाता है - Kavita Rawat Blog, Kahani, Kavita, Lekh, Yatra vritant, Sansmaran, Bacchon ka Kona
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शुक्रवार, 20 नवंबर 2009

नहीं कोई 'रिसते घाव' को सहलाता है


जब मन उदास हो, राह काँटों भरी दिखाती हो, आस-पास हौंसलापस्त करते लोगों की निगाहों घूरती हों, जो सीधे दिल पर नस्तर सी चुभ रही हों ऐसी परिस्थिति में दुःख किससे बांटें कहाँ सूझता है?
हताशा, निराशा के क्षणों में उपजी मेरी यह कृति देखआज भी मैं सोचती हूँ कि ईश्वर किसी भी प्राणी को दुःख न दें, और अगर दें भी तो उसे किसी का भी दया पात्र बनाने से वंचित रखें, उसे इतनी शक्ति अवश्य दें कि वह अपना स्वाभिमान हर परिस्थिति में बचाए रखने में सक्षम बना रहे ...........

पथरीली, संकरी राह में भटक रही ये जिंदगी
ओझल मंजिल लगता कदम-कदम पर फेरा है
जब- जब भी दिखा उगता सूरज ख़ुशी का
तब-तब मुझको गहन तम ने आकर घेरा है

हरतरफ वीरान पहाड़ियों से घिरी हूँ मैं
इर्द-गिर्द कंटीली झाड़ियाँ उगने लगी है
बचा पास मेरे एक धुंधला सा दर्पण
वह भी अब छोर- छोर से चटकने लगी है

चलती हैं मन में कभी तूफानी हवाएं
कभी इर्द-गिर्द काली घटायें घिरती हैं
कसते देख व्यंग्य मुस्कान किसी की
सीने में शूल सी चुभने लगती हैं

दीन-हीन दया पात्र हूँ नहीं मैं
फिर भी देख मुझ पर कोई दया जताता है
आहिस्ते से छिड़कते नमक छुपे घाव पर
नहीं कोई 'रिसते घाव' को सहलाता है.

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