एक बार की बात है शिवजी-पार्वती कैलाश पर बैठे पृथ्वीवासियों के धार्मिक कर्मकांड के विषय पर गहन चर्चा कर रहे थे। पार्वती ने शिवजी से पूछा- "भगवन! पृथ्वी पर लोग इतना कर्मकांड करते हैं फिर भी उन्हें इसका लाभ क्यों नहीं मिलता" तो शिवजी गंभीर होकर बोले- "आज मनुष्य के जीवन में आडम्बर छाया है। लोग धार्मिकता का दिखावा करते हैं, उनके मन वैसे नहीं हैं, जैसा वे करते हैं वे आस्था प्रगट जरूर करते हैं, परंतु वास्तव में अनास्था में जीते हैं।"
शिवजी की बात से असहमत होकर पार्वती जी ने कहा कि मुझे इस बात पर विश्वास नहीं है तो शिवजी बोले चलो अभी इसकी पुष्टि हेतु धरती पर चलते हैं दूध का दूध और पानी का पानी हो जाएगा। पार्वती ने सुंदरी साध्वी पत्नी और शिवजी ने कोढ़ी का रूप धारण किया और कैलाश पर्वत से उतरकर एक विशाल शिव मंदिर की सीढियों के समीप बैठ गए।
मंदिर में जाने वाले धर्मप्रिय भक्त, दानी दाता पार्वती जी का रूप देखकर आह भरकर नजर डालते और फिर मन मसोसकर सिक्के, रुपये डालते हुए आगे बढ़ जाते। कोढ़ी बने शिवजी को तो कोई देखना भी नहीं चाहता था। उनके सामने बिछे कपड़े पर इक्के दुक्के सिक्के ही कोई बेमन फेंकते हुए सरपट भाग निकलते। पार्वती जी को यह देख बहुत बुरा लगता लेकिन वह जैसे-तैसे इसका सामना करती रहीं। हद तो तब हो गई जब कुछ मनचले पार्वती जी को यह कहने से भी बाज नहीं आए कि- 'कहाँ इस कोढ़ी के साथ बैठी हो, क्यों नहीं हमारे साथ चल लेती।" यह देख जब शिवजी पार्वती को देखकर मुस्कराए तो पार्वती उनकी मुस्कान में छिपा कटाक्ष समझ गईं। वे हारकर शिवजी से बोली - "प्रभु! लौट चलिए। अपना तो कैलाश ही भला। सहन नहीं होता इन पाखंडियों का यह कुत्सित स्वरुप! क्या यही मनुष्य हमारी सर्वोत्कृष्ट संरचना और शक्तिशाली कृति हैं?"
पार्वती जी के आग्रह पर वे अपने कैलाश लौट चले तो पार्वती की समझ में यह बात आ गई कि क्यों लोगों को उनकी पूजा का प्रतिफल नहीं मिलता,,, वस्तुतः आडंबर से भगवान कभी भी प्रसन्न नहीं होते उल्टे ऐसे लोगों को अपनी करनी का दंड एक दिन जरूर मिलता है।
तो Tआईए इस महाशिवरात्रि के अवसर पर धार्मिक आडम्बर से दूर रहने और इसे मिटाने के लिए निरंतर प्रयास करते हुए अपने मनुष्य होने को सार्थक करने का संकल्प करें।
...कविता रावत