प्रभु! अपना तो कैलाश ही भला..... - Kavita Rawat Blog, Kahani, Kavita, Lekh, Yatra vritant, Sansmaran, Bacchon ka Kona
ब्लॉग के माध्यम से मेरा प्रयास है कि मैं अपनी कविता, कहानी, गीत, गजल, लेख, यात्रा संस्मरण और संस्मरण द्वारा अपने विचारों व भावनाओं को अपने पारिवारिक और सामाजिक दायित्व निर्वहन के साथ-साथ सरलतम अभिव्यक्ति के माध्यम से लिपिबद्ध करते हुए अधिकाधिक जनमानस के निकट पहुँच सकूँ। इसके लिए आपके सुझाव, आलोचना, समालोचना आदि का हार्दिक स्वागत है।

बुधवार, 2 मार्च 2011

प्रभु! अपना तो कैलाश ही भला.....

सभी ब्‍लागर साथियों और सुधि पाठकों को महाशिवरात्रि की हार्दिक शुभकामनायें। इन दिनों आप  सबके ब्लॉग पर न आ पाने  के लिए क्षमा चाहती हूँ।  स्कूल तो बच्‍चे जाते हैं लेकिन परीक्षा मेरी चल रही है। बच्चों को साथ बिठाकर पढ़ाना, समझाना बहुत  सरल काम नहीं है आप भी जानते हैं! खैर बच्चों की माथा-पच्ची पर फिर कभी बात करेंगे।  फिलहाल आप मेरे लिए अपने ब्लॉग से कुछ दिन का आकस्मिक अवकाश स्वीकृत करते हुए प्रस्तुत शिव-पार्वती प्रसंग पर  विचार-मंथन कर अपने विचार व्यक्त कीजियेगा ...
कुछ समय पहले शिवजी-पार्वती कैलाश पर  पृथ्वीवासियों के धार्मिक कर्मकांड के विषय पर गहन चर्चा कर रहे थे। पार्वती ने शिवजी से पूछा- "भगवन! पृथ्वी पर लोग इतना कर्मकांड करते हैं फिर भी उन्हें इसका लाभ क्यों नहीं मिलता!"  शिवजी गंभीर होकर बोले- "आज मनुष्य के जीवन में आडम्बर छाया है।  लोग धार्मिकता का दिखावा करते हैं, उनके मन वैसे नहीं हैं। वे आस्‍था प्रगट जरूर करते हैं, पर वास्‍तव में अनास्‍था में जीते हैं।"
       पार्वती ने कहा मुझे इस बात पर विश्‍वास नहीं होता। शिवजी  ने कहा  इसकी पुष्टि हेतु धरती पर चलते हैं।  पार्वती ने सुंदरी साध्वी पत्नी और शिवजी ने कोढ़ी का रूप धारण किया और कैलाश पर्वत से उतरकर एक विशाल शिव मंदिर की सीढियों के समीप बैठ गए।
        मंदिर में जाने वाले  धर्मप्रिय भक्त, दानी दाता  पार्वती जी का रूप देखकर  आह भरकर नजर डालते और फिर मन मसोसकर सिक्के, रुपये डालते हुए आगे बढ़ जाते। कोढ़ी बने शिवजी को तो कोई देखना भी नहीं चाहता था। उनके  सामने बिछे कपड़े पर इक्का-दुक्का सिक्‍के ही  नजर आ रहे थे।   पार्वती जी  जैसे-तैसे इसका सामना करती रहीं। हद तो तब हो गई जब कुछ मनचले पार्वती जी को यह कहने से भी बाज नहीं आए कि- 'कहाँ इस कोढ़ी के साथ बैठी हो, चलो हमारे साथ रानी बनाकर रखेंगे।"
         शिवजी पार्वती को देखकर मुस्‍कराए।  पार्वती उनकी मुस्‍कान में छिपा कटाक्ष समझ गईं। वे हारकर  शिवजी से बोली - "प्रभु! लौट चलिए। अपना तो कैलाश ही भला।  सहन नहीं होता इन पाखंडियों का यह कुत्सित स्वरुप! क्या यही मनुष्य हमारी सर्वोत्कृष्ट संरचना और शक्तिशाली कृति हैं?"
यह सवाल केवल शिवजी से नहीं हम सबसे है।

        आईए इस महाशिवरात्रि के अवसर पर धार्मिक आडम्बर से दूर रहने और इसे मिटाने के लिए निरंतर प्रयास करते हुए  अपने  मनुष्य होने को सार्थक करने का संकल्‍प करें।

  ...कविता रावत