जब प्रकृति हरी-भरी चुनरी ओढ़े द्वार खड़ी हो, वृक्षों, लताओं, वल्लरियों, पुष्पों एवं मंजरियों की आभा दीप्त हो रही हो, शीतल मंद सुगन्धित बयार बह रही हो, गली-मोहल्ले और चौराहे माँ की जय-जयकारों के साथ चित्ताकर्षक प्रतिमाओं और झाँकियों से जगमगाते हुए भक्ति रस की गंगा बहा रही हो, ऐसे मनोहारी उत्सवी माहौल में भला कौन ऐसा होगा जो भक्ति और शक्ति साधना में डूबकर माँ जगदम्बे का आशीर्वाद नहीं लेना चाहेगा।
आज नवरात्र सिर्फ साधु-सन्यासियों की शक्ति साधना पर्व ही नहीं अपितु आम लोगों के लिए अपनी मनोकामना, अभिलाषा पूर्ति और समस्याओं के समाधान के लिए देवी साधना कर कुछ विशिष्ट उपलब्धि प्राप्ति का सौभाग्यदायक अवसर समझा जाता है। क्योंकि माँ दुर्गा को विश्व की सृजनात्मक शक्ति के रूप के साथ ही एक ऐसी परमाध्या, ब्रह्ममयी महाशक्ति के रूप में भी माना जाता है जो विश्व चेतना के रूप में सर्वत्र व्याप्त हैं। माना जाता है कि कोई भी साधना शक्ति उपासना के बिना पूर्ण नहीं होती। शक्ति साधना साधक के लिए उतना ही आवश्यक है जितना शरीर के लिए भोजन।नवरात्रि में आम लोग भी अपनी उपवास साधना के माध्यम से इन नौ दिन में माँ का ध्यान, पूजा-पाठ कर उन्हें प्रसन्न कर आशीर्वाद पाते हैं। हमारे आयुर्वेद चिकित्सा शास्त्रों में उपवास का विस्तृत उल्लेख मिलता है। नवरात्र में इसे शरीर को स्वस्थ रखने के लिए बहुत लाभदायक बताया गया है।
आयुर्वेद में उपवास की व्याख्या इस प्रकार की गई है- ‘आहारं पचति शिखी दोषनाहारवर्जितः।‘ अर्थात् जीवनी-शक्ति भोजन को पचाती है। यदि भोजन न ग्रहण किया जाए तो भोजन के पचाने से मुक्त हुई जीवनी-शक्ति शरीर से विकारों को निकालने की प्रक्रिया में लग जाती है। श्री रामचरितमानस में भी कहा गया है- भोजन करिउ तृपिति हित लागी। जिमि सो असन पचवै जठरागी।।
नवरात्र-व्रत मौसम बदलने के अवसरों पर किए जाते हैं। एक बार जब ऋतु सर्दी से गर्मी की ओर और दूसरी बार तब जब ऋतु गर्मी से सर्दी की ओर बढ़ती है। साधारणतः यह देखा जाता है कि ऋतु परिवर्तन के इन मोड़ों पर अधिकतर लोग सर्दी जुकाम, बुखार, पेचिश, मल, अजीर्ण, चेचक, हैजा, इन्फ्लूएंजा आदि रोगों से पीडि़त हो जाते हैं। ऋतु-परिवर्तन मानव शरीर में छिपे हुए विकारों एवं ग्रंथि-विषों को उभार देता है। अतः उस समय उपवास द्वारा उनको बाहर निकाल देना न केवल अधिक सुविधाजनक होता है, बल्कि आवश्यक और लाभकारी भी। इस प्रकार नवरात्र में किया गया व्रत वर्ष के दूसरे अवसरों पर किए गए साधारण उपवासों से अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। नवरात्र व्रतों के समय साधारणतया संयम, ध्यान और पूजा की त्रिवेणी बहा करती है। अतः यह व्रत शारीरिक, बौद्धिक तथा आध्यात्मिक सभी स्तरों पर अपना प्रभाव छोड़ जाता है और उपवासकर्ता को कल्याणकारी मार्ग की ओर अग्रसर होने की प्रेरणा और क्षमता प्रदान करता है।
सभी धर्मावलम्बी, किसी न किसी रूप में वर्ष में कभी न कभी उपवास अवश्य रखते हैं। इससे भले ही उनकी जीवनी-शक्ति का जागरण न होता होगा किन्तु धार्मिक विश्वास के साथ वैज्ञानिक आधार पर विचार कर हम कह सकते हैं कि इससे लाभ ही मिलता है। उपवास का वास्तविक एवं आध्यात्मिक अभिप्राय भगवान की निकटता प्राप्त कर जीवन में रोग और थकावट का अंत कर अंग-प्रत्यंग में नया उत्साह भर मन की शिथिलता और कमजोरी को दूर करना होता है।
श्री रामचरितमानस में राम को शक्ति, आनंद और ज्ञान का प्रतीक तथा रावण को मोह, अर्थात अंधकार का प्रतीक माना गया है। नवरात्र-व्रतों की सफल समाप्ति के बाद उपवासकर्ता के जीवन में क्रमशः मोह आदि दुर्गुणों का विनाश होकर उसे शक्ति, आनंद एवं ज्ञान की प्राप्ति हो, ऐसी अपेक्षा की जाती है।
नवरात्र और दशहरा की शुभकामनाओं सहित!
...कविता रावत