घर और दफ्तर के बीच झूलते रहना ही मेरी विवशता है, लेकिन इस विवशता में खिन्नता नहीं है, बल्कि उसी में आनंद और उत्साह लेने की मेरी प्रवृत्ति है। लेकिन इन दिनों परिस्थितियाँ कुछ भिन्न है, कोरोना वायरस के चलते लाॅकडाउन होने से जिन्दगी घर की चारदीवारी के चूल्हे-चौके के साथ ही टेलीविजन, मोबाइल और इंटरनेट की दुनिया तक सिमटा हुआ है। इस समय टेलीविजन पर देश-दुनिया में फैली कोरोना की महामारी के हाल-समाचारों की खिन्नता के बीच दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाला रामायण व्यथित मन को कुछ शांति अवश्य प्रदान कर रहा है। हर दिन रामायण देखने के बाद मुझे मेरे अपने उत्तराखंडी रामलीला की बहुत याद आती है। आखिर याद क्यों न आयेगी, जब ऐसी रामलीला देखने-सुनने को मिलती थी, जिसमें पात्र दोहे, चौपाई, शेर और गीत रटकर स्वयं संवाद किया करते थे, जिन्हें सुन-देखकर पूरा पांडाल दर्शकों की करतल ध्वनि और जय सियाराम के जय-जयकारे के उद्घोष से गुंजायमान हो उठता था। पात्रों का जीवंत चित्रण दर्शकों के मन को इतना भाता था कि वे अपने घर पहुंचकर भी उनके विषय में आपसी चर्चा करते न अघाते थे। वे उन्हें उनके वास्तविक नाम से कम रामलीला के पात्रों के नाम से अधिक जानने-पहचानने लगते थे।
हर वर्ष रामलीला का मंचन होने के बाद भी दर्शकों के उत्साह में कोई कमी नजर नहीं आती थी। पांडाल में जगह की कमी होने पर कुछ बच्चे तो पेड़ों में चढ़कर तो कुछ बड़े-बुजुर्ग अपने घरों की सीढ़ियों पर बैठकर ही रामलीला का आनंद उठा लेते थे। रामलीला में सीता स्वयंवर के दिन सबसे ज्यादा भीड़-भाड़ होती थी, क्योंकि उस दिन दूर-दूर के गांव वाले भी गाजे-बाजों के साथ आना नहीं भूलते थे। सीता स्वयंवर में राम विवाह के साथ ही सबसे रोचक प्रसंग राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद देखने को मिलता था। जहाँ भगवान परशुराम शिव धनु भंग होने के बाद बड़े आवेग में प्रवेश कर टूटे शिव धनुष की ओर इशारा करते हुए अति क्रोध में राजा जनक से प्रश्न करते-
राम- क्यों नाहक बच्चे से लड़ाई करो,
ब्राह्मण होकर क्षमा तो करो।
परशुराम- ये बच्चा नहीं जहर की बेल है,
समझ रखा इसने मुझे खेल है।
राम- किया है गुनाह मैं गुनहगार हूँ,
सजा दो मुझे मैं सजावार हूँ।
लक्ष्मण- क्यों निकलता इस कदर म्यान से,
मैं वाकिफ हूँ तुम्हारी शान से।
परशुराम- यह करता है खुद मौत की इंतजारी,
मालूम होता है इसे मौत है प्यारी।
लक्ष्मण- तो लक्ष्मण भी कोई तमाशा नहीं,
जो डालोगे मुँह में बताशा नहीं।
परशुराम- जरा ठहर तुझको बताता हूँ
मैं, मजा शरारत का चखाता हूँ मैं।
राम- वह मेरे कहने से नरम हो गया,
तुम्हें नाहक उस पर भरम हो गया।
इस संवाद के बाद परशुराम जी श्रीराम को लक्ष्मण को उनकी आंखों से दूर हटाने और उसकी आवाज उनके कानों तक न पहुंचने को कहते हैं तो लक्ष्मण उनकी बातें हंसी में उड़ाते हुए उन्हें आंख बंद करने और कानों को उंगली से बंद करने की सलाह देना नहीं भूलते तो फिर दोनों के बीच हारमोनियम और तबला के संगत में सुमधुर संयुक्त गान छिड़ जाता-
परशुराम-
लक्ष्मण-
नोट- लेख में प्रयुक्त दोहे, चौपाई, गाने और शेर श्री छम्मीलाल ढौंडियाल जी द्वारा सम्पादित “श्री सम्पूर्ण रामलीला अभिनय“ पुस्तक से साभार संग्रहीत हैं।
हर वर्ष रामलीला का मंचन होने के बाद भी दर्शकों के उत्साह में कोई कमी नजर नहीं आती थी। पांडाल में जगह की कमी होने पर कुछ बच्चे तो पेड़ों में चढ़कर तो कुछ बड़े-बुजुर्ग अपने घरों की सीढ़ियों पर बैठकर ही रामलीला का आनंद उठा लेते थे। रामलीला में सीता स्वयंवर के दिन सबसे ज्यादा भीड़-भाड़ होती थी, क्योंकि उस दिन दूर-दूर के गांव वाले भी गाजे-बाजों के साथ आना नहीं भूलते थे। सीता स्वयंवर में राम विवाह के साथ ही सबसे रोचक प्रसंग राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद देखने को मिलता था। जहाँ भगवान परशुराम शिव धनु भंग होने के बाद बड़े आवेग में प्रवेश कर टूटे शिव धनुष की ओर इशारा करते हुए अति क्रोध में राजा जनक से प्रश्न करते-
ऐ मूढ़ जनक तू सच बतला, ये धनुवा किसने तोड़ा है।
इस भरे स्वयंवर में सीता से नाता किसने जोड़ा है।
जल्दी उसकी सूरत बतला, वरना चौपट कर डालूँगा।
जितना राज्य तेरा पृथ्वी पर, उलट-पुलट कर डालूँगा।
मेरे इस खूनी फरसे ने खून की नदिया बहाई है।
इस आर्य भूमि में कई बार, क्षत्राणी विधवा बनाई है।
परशुराम जी को अत्यन्त क्रुद्ध देख जब राजा जनक कुछ कहने की स्थिति में नहीं होते तो तब परशुराम जी के सामने आकर प्रभु श्रीराम विनयपूर्वक बताते कि शिव धनुष तोड़ने वाला आपका ही कोई दास है-
नाथ शम्भु धनु भंजन हारा, वो भी है कोई दास तुम्हारा।
जो कुछ आयसु होई गुसाईं, सिर धर नाथ करूँ मैं सोई।
श्रीराम जी के मुख से यह बात सुनते ही परशुराम जी घोषणा करते कि हे राम! जिसने भी मेरे गुरु का धनुष तोड़ा है, वह सहस्रबाहु के समान मेरा बैरी है। यदि वह शीघ्र मेरे सामने नहीं आया तो मैं उपस्थित सभी राजाओं को मार डालूँगा-
सुनहु राम जेहि शिव धनु तोरा, सहस्र बाहु सम सो रिपु मोरा।
अलग होहि न तजहुं समाजा, नहिं मारे जायें सब राजा।
परशुराम जी की क्रोधाग्नि भरे ऐसे वचन सुनकर जब सभी राजा भाग खड़े होते हैं तो शेषावतारी लक्ष्मण उनके सामने उपस्थित होकर उन्हें ऐसे बालपन में तोड़े धनुओं की याद दिलाते हुए पूछ बैठते हैं कि तब तो आपने कभी क्रोध किया, किन्तु आज इस धनुष के प्रति आपकी इतनी ममता क्यों है-
बहु धनु तोरेऊँ हम लरिकाई, कबहुं न अस रिष कीन्ह गुसाईं।
यहि धनु पर ममता केहि हेतु, कारण हमहिं कहो भृगु केतु।
लक्ष्मण की बात सुनकर परशुराम जी और भी क्रोधित होते हैं वे शिव धनुष की महिमा का बखान कर लक्ष्मण को जबान संभालकर बोलने की चेतावनी देते हैं-
रे नृप बालक काल बस, बोलत नाहिंस संभार।
धनुही यहि त्रिपुरारि धनु विदित सकल संसार।
परशुराम जी के अत्यन्त कुपित बोल सुनकर लक्ष्मण भी क्रोध में आकर उन्हें बताते कि ऋषिराज यह धनुष इतना पुराना हो गया था कि छूते ही टूट गया, जिसमें किसी का दोष नहीं है, आप मुनि हैं, इसलिए क्रोध करना आपको शोभा नहीं देता है-
सुनहु नाथ सब हमरे जाना, सकल धनुष है एक समाना।
छुअत टूट हमें क्या दोषू, मुनि बिन काज करे नहीं रोषू।
लक्ष्मण द्वारा परशुराम जी को साधारण मुनि कहने पर वे अपना परिचय कुछ इस तरह देना नहीं भूलते कि-
देखा नहिं ते परशु कठोरा, रे शठ सुनहुं स्वभाव न मोरा।
बालक देखि बधहुं नहि तो हीं, केवल मुनि मत जानहु मोही।
जब श्रीराम ने परशुराम जी को लक्ष्मण पर अति क्रुुद्ध होता देखा तो वे हाथ जोड़कर उन्हें धनुष भंग होने का वृतांत कुछ इस तरह सुनाने लगे-
क्यों होते हो खफा मुनि जी, क्या है दोष हमारा।
जनकराज ने सभा मध्य में, रोष से यही पुकारा।
सब राजे उपहास योग्य हैं, धनु न किसी ने उभारा।
छूवत टूट गया है सरासन, सीज गया था सारा। क्यों होते हो .....
श्रीराम जी के इस शांतिपूर्ण ढंग से संवाद करने से परशुराम उनसे कहते हैं कि हे राम तुम तो शांत हो किन्तु तुम्हारा छोटा भाई बड़ा पापी है, इसका मुख तो गोरा है परन्तु मन कोयले की तरह काला है। दिल चाहता है कि इस फरशे से इसके दो टुकड़े कर दूं। इसके बाद राम-परशुराम और लक्ष्मण के बीच शेर के माध्यम से कुछ इस प्रकार संवाद चलता कि दर्शक देखते ही रह जाते-राम- क्यों नाहक बच्चे से लड़ाई करो,
ब्राह्मण होकर क्षमा तो करो।
परशुराम- ये बच्चा नहीं जहर की बेल है,
समझ रखा इसने मुझे खेल है।
राम- किया है गुनाह मैं गुनहगार हूँ,
सजा दो मुझे मैं सजावार हूँ।
लक्ष्मण- क्यों निकलता इस कदर म्यान से,
मैं वाकिफ हूँ तुम्हारी शान से।
परशुराम- यह करता है खुद मौत की इंतजारी,
मालूम होता है इसे मौत है प्यारी।
लक्ष्मण- तो लक्ष्मण भी कोई तमाशा नहीं,
जो डालोगे मुँह में बताशा नहीं।
परशुराम- जरा ठहर तुझको बताता हूँ
मैं, मजा शरारत का चखाता हूँ मैं।
राम- वह मेरे कहने से नरम हो गया,
तुम्हें नाहक उस पर भरम हो गया।
इस संवाद के बाद परशुराम जी श्रीराम को लक्ष्मण को उनकी आंखों से दूर हटाने और उसकी आवाज उनके कानों तक न पहुंचने को कहते हैं तो लक्ष्मण उनकी बातें हंसी में उड़ाते हुए उन्हें आंख बंद करने और कानों को उंगली से बंद करने की सलाह देना नहीं भूलते तो फिर दोनों के बीच हारमोनियम और तबला के संगत में सुमधुर संयुक्त गान छिड़ जाता-
परशुराम-
तेरी बातों से होता है जाहिर मुझे,
तेरी मौत में कुछ भी कसर ही नहीं।
तेरी मौत में कुछ भी कसर ही नहीं।
क्यों उछलता है इतना मेरे सामने,
मेरी ताकत की तुझको खबर ही नहीं।
लक्ष्मण- मेरी ताकत की तुझको खबर ही नहीं।
ऐसी गीदड़ सी धमकी दिखा और को,
तेरी धमकी का लक्ष्मण को डर ही नहीं।
तेरी धमकी का लक्ष्मण को डर ही नहीं।
लाख सेखी जता, लाख बातें बना,
खौफ का मेरे दिल में गुजर ही नहीं।
खौफ का मेरे दिल में गुजर ही नहीं।
भाग जाऊँ तेरे सामने से अगर,
तो मैं दशरथ पिता का कुंवर ही नहीं।
परशुराम- तो मैं दशरथ पिता का कुंवर ही नहीं।
जा चला जा इसी में तेरी बेहतरी,
वरना गर्दन पे होगा ऐ सर ही नहीं।
वरना गर्दन पे होगा ऐ सर ही नहीं।
जिस घड़ी मैंने फरसा हिला भी दिया,
तो रहेगी खड़ी तेरी सूरत नहीं।
तेरी बातों का मन पर असर ही नहीं।
संयुक्त गान के बाद एक बार फिर शेर के माध्यम से जब जुबानी जंग छिड़ती तो दर्शक मूक होकर अपलक उन्हें देखते रह जाते-तो रहेगी खड़ी तेरी सूरत नहीं।
लक्ष्मण-
चाहे मैं कम दिल, कमसिन, कमजोर हूँ, तेरी बातों का मन पर असर ही नहीं।
लक्ष्मण-
आंखों से आंखे डरती हों तो आंखे मूंदकर चले जाओ।
छाती की धड़कन होती हो तो उस पर हाथ धरे जाओ।
तब बिना बुलाये आये थे, अब बिना कहे जा सकते हो।
अनुराम धनुष खण्डों पर हो तो उनको ले जा सकते हो।
परशुराम-
मुझको सीधा ब्राह्मण न जान मैं क्षत्रिय कुल का द्रोही हूँ।
भृगुवंशी बाल ब्रह्मचारी, अति क्रोधी हूँ निर्मोही हूँ।
विख्यात सहस्रबाहु तक के, भुजदण्ड काटने वाला हूँ।
इस फरसे को तू भी विलोक, जो खून पीने वाला हूँ।
लक्ष्मण-
बस, इनके एक फरसे में ही वीरों का स्वर्गद्वार खुला।
हल्दी की एक गांठ पर ही, पंसारी का बाजार खुला।
अब बीत चुकी इसकी बहार, यह शस्त्र हो गया गुट्ठल है।
अब फरसे में वह धार नहीं, जो बूढ़ी वाणी में बल है।
परशुराम-
दुध-मुंहु बड़ों से छोड़ हँसी, यह हँसना तुझे रुलायेगा।
कर देगा दांत अभी खट्टे, फरसा यह स्वाद चखायेगा।
लड़के महलों में खेल-खुल क्यों मुझसे लड़के करता है।
मेरे क्रोधानल के आगे, क्यों तड़फ-तड़फ कर मरता है।
लक्ष्मण-
श्री महाराज हम लड़के हैं इसलिए लड़कपन करते हैं।
शोभित है नहीं बड़ों को यह जो बच्चों के मुँह लगते हैं।
मेरे मुँह में वह दूध नहीं जो फरसे से खटिया जाये।
भय है आपके क्रोधानल से, कहीं उबाल न आ जाये।
परशुराम-
जो पितृ ऋण से उऋण हुआ, जो माता का बलिदाता है।
गुरु ऋण के कारण वही हाथ एक बार फिर खुजलाता है।
इस कारण उस उद्धार का अब ऐसा भुगतान करूंगा मैं।
अपने इस कुलिस कुल्हाड़ी से तेरा बलिदान करूंगा मैं।
लक्ष्मण-
यह लोहा तुम्हें निहाल करें, जिसने घर का लहू चाटा।
बलिहारी मैं उन हाथों की, जिसने माता का सिर काटा।
गुरु ऋण अब तक माथे पर है, उसको अब मैं निबटा दूंगा।
ले आये आप महाजन को, कौड़ी-कौड़ी चुकता दूँगा।
लक्ष्मण की कैंची की तरह चलती जुबान देख जब परशुराम जी अपना आपा खोकर फरसा उठाकर उनकी ओर लपकते तो उसी क्षण श्रीराम लक्ष्मण के सामने आकर उसे चुप रहने को कहते हुए हाथ जोड़कर परशुराम जी को समझाने लगते कि हे मुनिनाथ अपने क्रोध को रोककर मेरे साथ बात कीजिए, जिस पर परशुराम जी श्रीराम को लक्ष्मण की ओर इशारा करते हुए कहते कि हे राम एक तरफ तो तेरा भाई अति कटु वचन कह रहा है और दूसरी तरफ तू बार-बार हाथ जोड़कर बात करने को कह रहा है। यह देख अब मैं चुपचाप यहां से यूँ ही नहीं जाने वाला हूँ। अब तू मेरे से युद्ध कर नहीं तो राम कहलाना छोड़ दे। युद्ध की बात सुनकर श्रीराम जी उनसे बड़े आदरभाव से समझाते है कि हे नाथ मेरा नाम तो केवल राम है परन्तु आपके नाम के आगे परशु भी लगा है। इसलिए हम तो हर प्रकार से आप से हारे हुए हैं-
नाम राम लघु मात्र हमारा, परशु सहित बड़ नाम तुम्हारा।
सब प्रकार हम तुमसे हारे, क्षमहु नाथ अपराध हमारे।
श्रीराम जी के धनुष उनके द्वारा भंग किए जाने की बात बताने पर जब परशुराम शंका जाहिर करते हैं तो श्रीराम जी उन्हें सहज भाव से शंका समाधान का उपाय करने को कहते हैं तो परशुराम जी श्रीराम को अपना धनुष देते हुए उस पर चिल्ला चढ़ाकर उनका सन्देह दूर करने को कहते है-
राम रमापति करधनु लेहू, खींचहू चाप मिटे सन्देहू।
यह धनु दीन मोहिं भगवाना, खींचहू चाप तबहिं हम जाना।
श्रीराम जी द्वारा जैसे ही धनुष पर चिल्ला चढ़ाया जाता है तो परशुराम जी को यह समझते देर नहीं लगी कि उन्होंने साक्षात विष्णु के पूर्णावतार श्रीराम को पहचानने की भूल की है, इसलिए उन्होंने अपने वहीं अपने शस्त्रों के त्याग का प्रण कर विन्ध्याचल पर्वत पर जाकर ईश्वर भक्ति में जीवन बिताने का संकल्प लेतेे हुए प्रस्थान किया-
जै रघुवंश बनज बन भानू, गहन दनुज कुल दहन कृषानू।
जय सुर धेनु विप्र हितकारी, जय मद मोह क्रोध भयहारी।
विनयशील करूणा गुण सागर, जयति वचन रचना अति सागर।
कविता रावत की ओर से सभी पाठकों एवं ब्लाॅगर्स को
भगवान विष्णु के आवेशावतारी परशुराम जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं।
भगवान विष्णु के आवेशावतारी परशुराम जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं।
14 टिप्पणियां:
परशुराम जयंती के दिन "परशुराम-लक्ष्मण संवाद" पढ़ कर मन प्रफुल्लित हो गया । आपको भी जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं ।
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 26 एप्रिल 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
सुन्दर प्रस्तुति
परशुराम जयंती की हार्दिक शुभकामनाएं*
वाह! आनंद आ गया। हमें अपने गांव में देखी बचपन की रामलीला भी याद आ गयी। हमारी माँ, दादी साड़ी कपड़े चूड़ी सिंदूर से सीताजी की विदाई करती थी। हमारा बाल वर्ग सदा अपने को राम की भूमिका में देखना चाहता था।🙏🏻🙏🏻
जी नमस्ते,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (27-04-2020) को 'अमलतास-पीले फूलों के गजरे' (चर्चा अंक-3683) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
*****
बहुत ही सुन्दर प्रसंग ... और पूर्ण रामलीला में जैसे चित्रण होता है ...
लाजवाब सजीव विवाद परशुराम जी की जयंती पर ... आनंद आ गया ...
उत्कृष्ट प्रस्तुति.....बधाई....
उत्तर भारत के लगभग सभी गाँवों/कस्बों में मंचित रामलीलाओं के परशुराम_लक्ष्मण संवाद और अंगद-रावण संवाद हमारे बचपन की कभी न भुलाई जाने वाली धरोहर हैं| आपकी इस पोस्ट ने यादें ताजा कर दी|
बचपन में देखी गाँव की रामलीला की यादें ताजा हो गयी आपकी पोस्ट से....वैसे ये पोस्ट मैं पहले भी पढ चुकी थी पर प्रतिक्रिया नहीं दी क्योंकि मुझे इसे फुर्सत से दुबारा पढ़ना था आज पढ़कर मन प्रसन्न हुआ सब यादें ताजा हो गयी रामलीला देखने के लिए रामलीला प्रांगण में दिन से ही टाट बोरियां बिछा आते...वे भी क्या दिन थे...
इस लाजवाब नायाब लेखन हेतु बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं।
पुरानी रामलीलाओ की याद ताजा ह गयी संवा तक भी ज्यो के त्यो।
पिछले साल की बात है दीवाली के बाद हम चमोली रुके। तब देखा कि उधर रामलीला हो रही थी हम भी देखने के लिए गए। यह रामलीला हमारे इधर की तरह भव्य तो नही थी लेकिन फिर भी काफी भीड़ थी। हमे भी काफी पसंद आई।
यादे पुन चित्रित हो गई रामलीला की
सुंदर चित्रण मुग्ध करती सरस कृति
एक टिप्पणी भेजें