महावीर स्वामी का जन्म 599 ई.पू. वृजिगण के क्षत्रिय कुल में वर्तमान बिहार राज्य के कुण्ड ग्राम में हुआ। इनकी माता त्रिशला वैशाली राज्य के पराक्रमी लिच्छवी नरेश की पुत्री थी। महावीर का बचपन का नाम वर्धमान था। "आचारांग सूत्र" के अनुसार महावीर की पत्नी का नाम यशोधरा और पुत्री का नाम प्रियदर्शनी था। अपने उदासीन प्रकृति के कारण लगभग तीस वर्ष की आयु में वे अपने बड़े भाई नन्दीवर्धन से आज्ञा लेकर सांसारिक वैभव से विरक्त होकर वन को चल दिए। गृह त्याग कर इन्होंने बारह वर्ष की कठोर और कष्ट-साध्य तपस्या के उपरांत श्रीम्भीक नामक गांव के बाहर ऋजुपालिका नदी के उत्तरी तट पर "कैवल्य" अर्थात मोक्ष प्राप्त किया और तब से वे अर्हंत अर्थात् पूज्य, जिन, विजेता, बंधनमुक्त महावीर कहलाये।
जैन धर्म का साहित्य में बहुत बड़ा योगदान है। जैन धर्म ने प्राकृत भाषा में 84 ग्रन्थों की रचना की है, जिसमें 41 सूत्र, अनेक प्रकीर्णक, 12 निर्युक्ति और एक महाभाष्य है। सूत्रों में 11 अंग, 12 उपांश, 5 छेद, 5 मूल और 8 प्रकीर्णक रचनाएं हैं, जिनकी भाषा अर्ध मागधी है। प्रकाण्ड विद्वान हेमचन्द्र भी जैन थे। द्वादश अंग के अंतर्गत “आचारांग सूत्र“ अन्यन्त महत्वपूर्ण है। यह ग्रन्थ जैन साधु और साध्वियों की आचार संहिता है। भगवतीसूत्र में जैन धर्म के सिद्धान्तों के अतिरिक्त स्वर्ग व नरक का विशद् विवरण मिलता है। जैन धर्म ग्रन्थों पर लिखित हरिभद्र स्वामी, शान्ति सूरी, देवेन्द्र गणी तथा अभयदेव की टीकाओं का बहुत महत्व है।
जनश्रुति के अनुसार ऋषभदेव से लेकर महावीर तक चौबीस तीर्थंकर हुए, जिनमें अन्तिम दो पार्श्वनाथ और महावीर की ऐतिहासिकता को पाश्चात्य विद्वान भी स्वीकार करते हैं। महावीर ने अपने पूर्वगामी तेईस तीर्थंकरों के ही मत का प्रतिपादन किया। वे अहिंसा, सत्य, अपरिग्रह और अस्तेय नामक चार नियमों के साथ ही ब्रह्मचर्य पर भी जोर देते हुए मोक्ष मार्ग की शिक्षा देते थे। महावीर स्वामी जी देशाटन को ज्ञानार्जन का सर्वश्रेष्ठ साधन मानते थे। इसलिए उनका कहना था कि मनुष्य को अपने जीवनकाल में देशाटन अवश्य करना चाहिए। महावीर स्वामी हमें जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में मार्गदर्शन कराते हैं। उनकी दी गई शिक्षाओं में से यदि हम एक भी शिक्षा अंगीकार कर लें तो जीवन धन्य हो जायेगा। उनकी जयंती के अवसर प्रस्तुत हैं उनके उपदेश के कुछ अंश-
- अपनी आत्मा को जीतना सब कुछ जीतना है।
- क्रोध प्रेम का नाश करता है, माया मित्रता का नाश करती है, लोभ सभी गुणों का।
- जिस प्रकार कमल जल में पैदा होकर जल में लिप्त नहीं होता, उसी प्रकार जो संसार में रहकर काम-भोगों से अलिप्त रहता है, उसे साधक कहते हैं।
- शरीर को नाव कहा है, जीव को नाविक और संसार को समुद्र। इसी संसार समुद्र को महर्षि लोग पार करते हैं।
- स्त्री, पुत्र, मित्र और बंधुजन सब जीते-जी के ही साथी है, मरने पर कोई भी साथ नहीं जाता है।
- जो मनुष्य अपना भला चाहता है, उसे पाप को बढ़ाने वाले क्रोध, मान, माया, लोभ इन दोषों को छोड़ देना चाहिए।
- ज्ञानी होने का सार यही है कि वह किसी भी प्राणी की हिंसा न करे।
- जिस मनुष्य का मन अहिंसा, संयम, तप, धर्म में सदा लगा रहता है, उसे देवता नमस्कार करते हैं।
- प्रत्येक साधक प्रतिदिन चिन्तन करे- मैने क्या कर लिया है और क्या करना शेष है, कौन सा ऐसा कार्य है, जिसको मैं नहीं कर पा रहा हूँ, इस पर विचार करें।
- आत्मा ही अपने दुःख-सुख का कर्त्ता तथा भोक्ता है।
- सिर काटने वाला शत्रु भी उतना अपकार नहीं करता, जितना की दुराचार में आसक्त आत्मा करती है।
- हे जीव! तू अजर-अमर है, महाशक्तिशाली है और सम्पूर्ण है, लेकिन दिखने वाला जगत् क्षणिक है, असमर्थ और निःसार है। तू इससे न्यारा है और यह तुझसे न्यारा है।
- तू शरीर को स्व आत्मा और विषयभोग का सुख, परिग्रह को सम्पदा, नाम को वैभव, रूप को सुन्दरता, पशुबल को वीरता मानता है। यह गलत है।
महावीर जयंती की हार्दिक शुभकामनायें!