बचपन में हम रामलीला देखने के लिए बड़े उत्सुक रहते थे। जब-जब जहाँ-कहीं भी रामलीला के बारे में सुनते वहाँ पहुंचते देर नहीं लगती। रामलीला में सीता स्वयंवर के दिन बहुत ज्यादा भीड़ रहती, इसलिए रात को जल्दी से खाना खाकर बहुत पहले ही हम बच्चे पांडाल में चुपचाप सीता स्वयंवर के दृश्य का इंतजार करने बैठ जाते। सीता स्वयंवर में अलग-अलग भेषभूषा में उपस्थित विभिन्न राज्यों से आये राजा-महाराजाओं के संवाद सुनने में बहुत आनंद आता था। सीता स्वयंवर में राम जी द्वारा जैसे ही धनुष भंग किया जाता तो ‘बोल सियापति रामचन्द्र जी की जय’ के साथ ही पांडाल तालियों की गूंज उठता और हम बच्चे भी खुशी से तब तक जय-जयकार करते जब तक कोई बड़ा हमें टोक नहीं देता। इस बीच जब पांडाल के बीच से गुस्से से दौड़ते हुए परशुराम मंच पर धमकते तो वहां उपस्थित राजा-महाराज भाग खड़े होने लगते तो हम बच्चों की भी सिट्टी-पिट्टी गुल हो जाती।
सीता स्वयंवर में राम-लक्ष्मण और परशुराम संवाद को याद कर आज भी मन रोमांचित हो उठता है। तब हम नहीं जानते थे कि भगवान राम की तरह ही भगवान परशुराम भी विष्णु भगवान के ही अवतार हैं। सीता स्वयंवर में राम-लक्ष्मण और परशुराम संवाद में जहाँ भगवान राम ने परशुराम जी के बल, शक्ति और पौरुष के साथ ही भगवान होने के विकारात्मक वृक्ष को समूल नष्ट कर उनके अंतर्मन को शुद्ध किया वहीं दूसरी ओर शेषावतारी लक्ष्मण ने उनके धनुष के प्रति उत्पन्न मोह को उनकी वाणी में ही समझाते हुए त्यागने पर विवश कर दिया। शिव धनु भंग हुआ देख जब भगवान परशुराम अत्यंत क्रोध में थे, तब भगवान राम ने उनसे बड़ी विनम्रता से विनती की -
नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥
आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥
इस पर भगवान परशुराम और क्रोधित होते हुए उनसे बोले-
सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥
सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥
यह सुनते हूँ शेषवतारी लक्ष्मण उन्हें याद दिलाकर कहते हैं कि -
बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं॥
एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥
का छति लाभु जून धनु तोरें। देखा राम नयन के भोरें॥
छुअत टूट रघुपतिहु न दोसू। मुनि बिनु काज करिअ कत रोसू॥
इस प्रसंग पर शेषावतारी लक्ष्मण का कहना कि-
बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं॥
अर्थात बचपन में ऐसे धनुष तो हमने बहुत तोड़े लेकिन तब तो आपने कभी क्रोध नहीं किया, के संदर्भ में रोचक कथा जुड़ी है- हैहय वंशी राजा सहस्त्रबाहु ने परशुराम जी के पिता महर्षि जमदग्नि का वध इसलिए कर दिया था क्योंकि महर्षि ने राजा को अपनी कामधेनु देने से मना कर दिया था। जब परशुराम जी ने अपनी मां रेणुका को 21 बार अपनी छाती पीटकर करुण क्रन्दन करते देखा तो वे ये देखकर इतने द्रवित हुए कि उन्होंने प्रण किया कि मैं पृथ्वी को क्षत्रिय रहित कर दूंगा। इसी कारण उन्होंने सहस्त्रबाहु के साथ ही 21 बार अपने फरसे से पृथ्वी को क्षत्रिय रहित कर दिया। माना जाता कि इन क्षत्रियों से प्राप्त अस्त्र-शस्त्र, धनुष-बाण, आयुध आदि का कोई दुरूपयोग न हो इसके लिए धरती ने मां का तथा शेषनाग ने पुत्र का रूप धारण किया और वे परशुराम जी के आश्रम में गए। जहां धरती मां ने अपने पुत्र को उनके पास कुछ दिन रख छोड़ने की विनती की, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया, जिस पर धरती मां ने यह वचन लिया कि यदि मेरा बच्चा कोई अनुचित काम कर बैठे तो आप स्वभाववश कोई क्रोध नहीं करेंगे, जिसे परशुराम जी ने मान लिया। एक दिन उनकी अनुपस्थिति में धरती पुत्र बने शेषनाग ने सभी अस्त्र-शस्त्र, धनुष-बाण, आयुध आदि सब नष्ट कर दिए, जिसे देख परशुराम जी को पहले तो बहुत क्रोध आया, लेकिन वचनबद्ध होने से उन्होंने उन्हें आशीर्वाद दिया और शेषावतारी लक्ष्मण ने भी उन्हें अपना असली रूप दिखाकर शिव धनुष भंग होने पर पुनः संवाद का इशारा किया और अंतर्ध्यान हो गए।
जब विश्वमित्र ने परशुराम से कहा कि लक्ष्मण को बच्चा समझ कर क्षमा कर दीजिए तो परशुराम जी बोले कि आपके प्रेमभाव से मैं इसे छोड़ रहा हूँ- “न त एहि काटि कुठार कठोरें। गुरहि उरिन होतेउँ श्रम थोरें॥ जिसे सुनकर शेषवतारी लक्ष्मण हंसकर कहते हैं कि- माता पितहि उरिन भए नीकें। गुर रिनु रहा सोचु बड़ जीकें॥ सो जनु हमरेहि माथे काढ़ा। दिन चलि गए ब्याज बड़ बाढ़ा।। इस संवाद से संबंधित परशुराम जी के गुरु ऋण से जुड़ी रोचक कथा प्रचलित है- भगवान शिव कुमार कार्तिकेय के साथ ही परशुराम जी के भी गुरु हैं। उन्होंने ने ही दोनों को अस्त्र विद्या सिखाई। एक बार शिव ने कुमार कार्तिकेय को कैलाश पर्वत के सर्वोच्च शिखर को बेधकर मानसरोवर तक हंसों के जाने हेतु मार्ग बनवाने का काम सौंपा, लेकिन वे बहुत प्रयास करने के बाद भी सफल नहीं हुए। तब भगवान परशुराम ने अपने तीव्र वाणों से कैलाश पर्वत के शिखर को बेधकर एक बड़ा छिद्र हंसों के आने-जाने हेतु बना दिया। परशुराम की वीरता से संतुष्ट होकर शिव ने उन्हें घर जाने की अनुमति दी, लेकिन वे गुरुदक्षिणा देने की हठ करने लगे। तब शिव ने कहा कि यदि तुम्हारा हठ है तो मेरे कंठ में पड़ी हुई मुंडों की माला, जिसमें एक मुण्ड कम है, उसके लिए एक सिर काट लाओ तो तुम्हारी गुरु दक्षिणा पूरी हो जायेगी। यह सुनकर परशुराम दंग रह गये। वे बोले- भगवान भला कौन अपना सिर काटकर देगा। तब शिवजी ने कहा कि शेषनाग के 1000 सिर हैं, उन्हीं का एक सिर काट ले आओ तो गुरुदक्षिणा पूरी हो जायेगी। गुरु दक्षिणा के लिए परशुराम ने शेषनाग का एक सिर काटने के लिए अपना पूरा बल लगा दिया लेकिन सफल नहीं हुए। इसलिए शेषावतारी लक्ष्मण स्वयंवर में उन्हें याद दिलाते हैं।