अभी कुछ माह पूर्व ही झुमरी से मैं परिचित हुई। जब भी मै सुबह-सवेरे कभी घूमने या दूध लेने सांची कार्नर तक जाती तो वह मेरे साथ-साथ हो लेती और वापस घर लौटने पर आंगन में थकी-हारी इस तरह पसर जाती जैसा उसी का आंगन हो और उससे मेरा कोई पूर्व जन्म को नाता हो। वह बच्चों को जन्म देने वाली थी, इसलिए उसकी स्थिति समझकर मुझे उससे हमदर्दी हो गई। वह बड़ी सुस्त रहती। खाना भी वह बड़े आराम-आराम से खा पाती। इस दौरान उसकी आम कुत्तों से एक बात मुझे बड़ी अजीब लगी कि वह सूखी रोटी खाना बिल्कुल भी पंसद नहीं करती थी। बहुत से लोग कहते हैं कि कुत्तों को घी हजम नहीं होता, लेकिन उसे घी या तेल लगी चुपड़ी रोटी या फिर दूध-रोटी-ब्रेड-बिस्कुट खाना ही अच्छा लगता। झुमरी को कोई परेशानी न हो इसके लिए मैंने जब उसके लिए बगीचे में रहने की व्यवस्था की तो उसकी आंखों में मुझे कृतज्ञता के भाव दिखे। बहुत से लोग आवारा कुत्तों को बड़ी हिकारत से देखकर दुत्कारते हुए उन पर राशन-पानी लेकर चढ़ बैठते हैं। अपने घर-आंगन में देखते ही झाडू, डंडा, चप्पल या पत्थर जो भी मौकाए हाथ में आया, उठाकर दे मारते हैं। वे भूल जाते हैं कि हमारी तरह ही जानवर भी प्यार के भूखे होते हैं। तभी तो वे हम इंसानों के करीब रहना पसंद करते हैं।
कुछ दिन बाद जब झुमरी ने छः पिल्लों को जन्म दिया, तो नए मेहमानों को देखकर मन को खुशी हुई। किन्तु दो दिन के अंतराल में जब 3 बहुत कमजोर पिल्ले एक के बाद एक चल बसे तो मन को गहरी पीड़ा पहुँची। झुमरी की बेवस दुःखियारी आँखों को देख मेरी आँखे भी नम हुई। लेकिन जल्दी ही झुमरी अपने तीनों बच्चों में रम गई। दो माह तक बच्चों को बड़ा होते और सबकुछ ठीक-ठाक चलता देख मन को बड़ी तसल्ली हुई। लेकिन एक दिन जब मैं ऑफिस से घर लौटी तो घर के पास झुमरी का एक बच्चा सड़क पर बुरी तरह कुचला मिला तो दिल धक से रह गया। आँगन में झुमरी के दो बच्चे खेल रहे थे लेकिन झुमरी नदारद थी। किसी अप्रिय आशंका के चलते मैं फ़ौरन उसकी खोजबीन में जुट गई, लेकिन अफसोस उसका कोई अता-पता नहीं चला। भले ही झुमरी के जाने के बाद उसके बच्चों की देखरेख की जिम्मेदारी उठानी पड़ रही है, लेकिन जब भी घर-आँगन में बच्चों की चहल-कदमी देखती हूँ तो दिन भर का थका-हारा मन तरोताजगी से भर उठता है।
झुमरी के बच्चे भी अपनी माँ पर ही गये हैं। उन्हें भी दूध-रोटी-ब्रेड-बिस्कुट या फिर घी-तेल लगी रोटी खाने को चाहिए। जब कोई पास-पड़ोसी उनके आगे बची-खुची सूखी रोटी पटक देते हैं तो वे उसे सूंघने के जहमत तक नहीं उठाते, ऐसी उपेक्षा देख वे यही कहते-फिरते हैं कि हमने उनके भाव बढ़ा रखे हैं। कई बार ऑफिस से आते ही उनकी कई शिकायतें भी सुननी पड़ती है। जैसे- आज वे छत में पहुंच कर धमा-चौकड़ी मचा रहे थे, कल हमारी कार या स्कूटर में चढ़कर आराम फरमा रहे थे, हमारे घर में बेधड़क घुसे चले आते हैं आदि चलता रहता है। इतना होने के बावजूद भी यह देखकर मन को बड़ी राहत है कि आजकल आस-पड़ोस वाले मेरे ऑफिस जाने के बाद उनका पूरा ख्याल रखने लगे हैं।
आजकल जब भी सुबह-सुबह घूमने निकलती हूँ तो झुमरी के बच्चे भी उछलते-कूदते साथ-साथ निकल पड़ते हैं। रास्ते भर उनकी शरारत बराबर चलती रहती है। कभी किसी जानवर को देखा नहीं कि लगे उसे आंख दिखाने, गुर्राने, सामने वाला उनसे कितना ताकतवर है, इसका भी ख्याल नहीं रखते। वे मेरा दम भरते हैं। सुबह-सवेरे कई लोग अपने पालतू कुत्तों के साथ घूमते नजर आते हैं, जिनसे घर-परिवार से लेकर देश-दुनिया भर की अंतहीन बातें होती रहती हैं। ऐसे ही एक बुजुर्ग दम्पत्ति जो भरे-पूरे परिवार के बावजूद अपनी पत्नी और पालतू कुत्ते के साथ अकेले रहते हैं। उन्होंने एक दिन निराशाभरी बात कही-“बुढ़ापे में अपने पास का पैसा, जीवन साथी और पालतू कुत्ता ही साथ देता है। बाकी सब छोड़कर चले जाते हैं" जो बार-बार हमारी आज की पारिवारिक विघटन व्यथा बयान कर मन में एक गहरी टीस पैदा कर जाती है।
....कविता रावत
24 टिप्पणियां:
बिन माँ के बच्चों के प्रति आपकी संवेदना मन को गहरी आश्वस्ति से भर गई ,नारी हृदय की ममता जिन पर छलकी वे दोनो बच्चे तो तृप्त हो ही गये होंगे १
सभी प्राणी प्यार और ममता के आगे नतमस्तक हैं।
मूक प्राणी की भाषा समझ पाना निश्चय ही दुष्कर है...अपने प्राणी प्रेम के लिए आपको साधुवाद...
मूक प्राणी के प्रति संवेदना काफी कुछ कह गई.
कहीं पढ़ा है कि जानवरों को पालने वाले दीर्घजीवी होते हैं.पता नहीं, इसमें कहाँ तक सच्चाई है लेकिन उनके संसर्ग में अपने दुःख और ग़मों को भुलाते बहुतों को देखा है.
नई पोस्ट : होली : अतीत से वर्तमान तक
इंसान हो या कोई पशु-पक्षी अथवा कोई भी जीव प्यार सभी चाहते हैं....... आलेख आपकी संवेदनशीलता के परिचायक है ...आज जब इंसानी संवेदनशीलता दम तोड़ती नज़र आ रही है ऐसे में एक सच्चे लेखक की क्या भूमिका होती है यह आपके लेख में साफ़ झलकता है ...
बहुत सुन्दर लेखन ...........
वाह आदरणीय वाह क्या विचार , धन्यवाद
नया प्रकाशन -: बुद्धिवर्धक कहानियाँ - ( ~ त्याग का सम्मान ~ )
बुढ़ापे में अपने पास का पैसा, पत्नी और पालतू कुत्ता ही साथ देता है, बाकी सब छोड़कर चले जाते हैं" हमारी आज की पारिवारिक विघटन व्यथा बयां कर मन में एक गहरी टीस उत्पन्न कर जाती है।
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आज की सच्ची हालत बयां करती हैं ये चंद लाईने ..
बुढ़ापे में औलादों का माँ-बाप का साथ छोड़ देना आज फैशन बन गया है जो बहुत ही दु:खद है ......
मन संवेदनशील हो तो दिल पसीज ही जाता है चाहे कोई भी निरीह प्राणी हो ... फिर कुत्ते तो ऐसे जानवर हैं जो सहज ही अपना बना लेते हैं थोड़े से प्यार के प्रति ... आपमें माँ की ममता नज़र आई तो खिंचे चले आये ...
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (14.03.2014) को "रंगों की बरसात लिए होली आई है (चर्चा अंक-1551)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें, वहाँ आपका स्वागत है, धन्यबाद।
कविता जी आपके आलेख हमेशा एक अपनापन लिये होते हैं. चाहे वे पारिवारिक घटनाक्रम से जुड़े हों या संसमरणात्मक हों या सामाजिक सरोकारों को लक्ष्य कर लिखे गये हों! यह आलेख भी आपकी गहरी सम्वेदनाओं को रेखांकित करता है. वो सम्वेदनाएँ जो बस हृदय से निकली स्नेह की भाषा जानती है! अभिभूत हूँ!
हमारा जर्मन शेफर्ड भी पग को देख कर मुस्कराते हुये इधर उधर देखता है। घर आते ही पर वह आपका भाव समझ जाता है और चाहता है कि आप उसे भी देखें।
प्रेम अपरिभाषित है और मूक जीव के प्रति आपका प्रेम एक काबिले तारीफ़ है
मन की संवेदनशीलता को दर्शाती बहुत सुन्दर प्रस्तुति...
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