भरे-पूरे परिवार के बावजूद

बेवसी, बेचारगी में सिमटी देख
दिल को पहुँचती है गहरी ठेस
सोचती हूं
क्यों अपने ही घर में कोई
बनकर तानाशाह चलाता हुक्म
सबको नचाता है अपने इशारों पर
हांकता है निरीह प्राणियों की तरह
डराता-धमकाता है दुश्मन समझकर
केवल अपनी ख़ुशी चाहता है
क्यों नहीं देख पाता वह
परिवार में अपनी ख़ुशी!
माना कि स्वतंत्र है
अपनी जिंदगी जीने के लिए
खा-पीकर,
देर-सबेर घर लौटने के लिए
लेकिन
क्यों भूल जाता है
कि पत्नी बैठी होगी
दिन भर की थकी हारी दरवाजे पर
बच्चे अपने बस्ते में भरी खट्टी-मीठी
बातें सुनाने, दिखाने के लिए होंगे बैचेन
अपनी मन पसंद चीज़ खाने की प्रतीक्षा में
देर तक जाग रहे होंगे
लाचार माँ-बाप
शंका-आशंकाओं के बीच मोह से बंधी,
बुढ़ाती आखों में
दुनिया की भीड़ में बच्चे के भटक जाने का डर पाले
अपनी मद्धम होती साँसों को बमुश्किल
थाम रहे होंगे
सच तो यह है कि
सिर्फ अपनी ख़ुशी चाहने वाले
कभी सुखी नहीं रह पाए हैं
वे अपने ही परिवार, समाज में एक दिन
दुत्कार दिए जाते हैं
और छोड़ दिए जाते हैं
जिन्दा लावारिस लाश की तरह
सड़-गलकर मरने के लिए
कहीं एक सूने कोने में!
.....कविता रावत
संवेदना-शून्य लोगों को जगाने के लिए लिखी गयी इस कविता में कविता जी का भाव-प्रेषण सुन्दर है। शुभकामनाएं।
ReplyDeleteसादर
श्यामल सुमन
09955373288
मुश्किलों से भागने की अपनी फितरत है नहीं।
कोशिशें गर दिल से हो तो जल उठेगी खुद शमां।।
www.manoramsuman.blogspot.com
सिर्फ अपनी ख़ुशी चाहने वाले
ReplyDeleteकभी सुखी नहीं रह पाए हैं
बिल्कुल सही कहा आपने।
मुस्कान पाने वाला मालामाल हो जाता है पर देने वाला दरिद्र नहीं होता।
Bahut gambheer mudde ko sahajata se utha achhee chetana bhee jagane kee koshish acchee lagee......
ReplyDeleteAabhar .
भरे-पूरे परिवार के बावजूद
ReplyDeleteकिसी की खुशियाँ
बेवसी, बेचारगी में सिमटी देख
दिल को पहुँचती है गहरी ठेस
खुशियाँ घर में ही मिलेगी, पर भ्रमवश लोग बाहर ढूढते हैं
संवेदनशील रचना ।
ReplyDeletewaah samvedna aapki kavita se mukhar hui aur sabak mila samvednaheen jaanvaron ko jo insaano ke bhesh me rehte hain...
ReplyDeleteबहुत उम्दा रचना।
ReplyDeleteमुश्किल मुश्किल
हाँ मुश्किल
एक टिप्पणी से बचना।
कमाल की पंक्तिया और भाव है, संवेदना की हदों हो छुती हुई रचना!
ReplyDeleteहमेशा की तरह आपकी रचना जानदार और शानदार है।
ReplyDelete... बेहद प्रभावशाली
ReplyDeleteसंवेदनशील प्रस्तुति है।
ReplyDeleteएक सशक्त रचना, एक ज्वलंत प्रश्न, एक जीवंत समस्या... विशेषतः परिवार के बीच पनपती सम्वादहीनता की ओर इंगित करती आपकी कविता एक घिनौने किंतु सत्य से साक्षात्कार कराती है...
ReplyDeleteपरिवार इकाई है समाज की. परिवार सुख शान्ति से रहेगा तो समाज में सुख शान्ति होगी.
ReplyDeleteमार्मिक ... दिल को छूती हैं आपकी पंक्तियाँ ...
ReplyDeleteमाना कि स्वतंत्र है
ReplyDeleteअपनी जिंदगी जीने के लिए
खा-पीकर,
देर-सबेर घर लौटने के लिए
लेकिन
क्यों भूल जाता है
कि पत्नी बैठी होगी
दिन भर की थकी हारी दरवाजे पर
बच्चे अपने बस्ते में भरी खट्टी-मीठी
बातें सुनाने, दिखाने के लिए होंगे बैचेन
अपनी मन पसंद चीज़ खाने की प्रतीक्षा में
देर तक जाग रहे होंगे
bahut prabhshalee reeti se saMwedanaaoM kaa prastutikaraN
करीब अस्सी प्रतिशत परिवारों की व्यथा भर दी इस रचना में ।पहला छंद पूरे परिवार के लिये .दूसरा पत्नि ,बच्चे और बुजुर्ग मा बाप के लिये।तीसरे पद मे चेतावनी कि अपने लिये जिये तो क्या जिये ।अपनी ही खुशी चाहने वाले कभी सुखी नही रह सकते ,यह एक हकीकत भी है और एक दर्शन भी ,जिसके वाबत बहुत से ग्रन्थों मे हिदायते भी दी गई है कि पडोसी के भूखे होते हुए स्वंम भोजन करलेना पाप है
ReplyDeletebeautiful educational poem
ReplyDeletebeautiful educational poem
ReplyDeleteबहुत ही संवेदनशील रचना है...इतनी माम्रिक रचना..मन को झकझोर गयी
ReplyDeleteसच तो यह है कि
ReplyDeleteसिर्फ अपनी ख़ुशी चाहने वाले
कभी सुखी नहीं रह पाए हैं
bahut hi gahra sach
सच तो यह है कि
ReplyDeleteसिर्फ अपनी ख़ुशी चाहने वाले
कभी सुखी नहीं रह पाए हैं
वे अपने ही परिवार, समाज में एक दिन
दुत्कार दिए जाते हैं ..sach kaha aapne ..behtreen dhng se likha hai aapne in bhaavon ko ..
जीवन के नग्न सत्य को उघाडती हुई रचना।
ReplyDeleteकौन हो सकता है चर्चित ब्लॉगर?
पत्नियों को मिले नार्को टेस्ट का अधिकार?
This is what such people deserve.....
ReplyDeleteBeautifully encapsulated!
Regards,
Ashish :)
एक बेहतरीन रचना
ReplyDeleteकाबिले तारीफ़ शव्द संयोजन
बेहतरीन अनूठी कल्पना भावाव्यक्ति
सुन्दर भावाव्यक्ति .साधुवाद
satguru-satykikhoj.blogspot.com
bahut hi achhi rachna...
ReplyDeletedil mein utar gayi...
yun hi likhte rahein..
regards
http://i555.blogspot.com/
idhar ka bhi rukh karein....
बहुत ही अच्छी कविता....पूरा परिवार होने के बाद भी खुशियों के लिए क्यों तरसता है....आखिर एक आदमी की सनक के कारण पूरा परिवार दुखी होता है..सब भूल जाता है इंसान की असली खुशी दूसरो को सुखी करने में है..अपने अलावा अपने परिवार के बारे में भी सोचे इंसान तो कोई दिक्तत न हो, पर क्या करें...?
ReplyDeleteसच तो यह है कि
ReplyDeleteसिर्फ अपनी ख़ुशी चाहने वाले
कभी सुखी नहीं रह पाए हैं
...बहुत खूब..सुन्दर व सार्थक सन्देश. यही तो जिंदगी है.
कविताजी,
ReplyDeleteआपने बहुत ही सटीक वर्णन किया है | अपने परिवार में भी संवेदना की कमी महसूस करतें है कभी.. आपके पास शब्द चित्रण करने की अनूठी कुशलता है | यह शब्द पज़ल की तरह नहीं है बल्कि मोतीयों की माला जैसे है... जिसका एक मूल्य है और सुन्दरता भी...
बहुत ही उम्दा कार्य करो और ख़ास तो आपके पास विषय वैविध्य है | आप चाहें धर्म की बात करें, परिवार की या धुप की... बहुत ही सुन्दर और पूर्णरूप से आत्मसात किएँ अनुभवों की पूंजी है... |
धन्यवाद
- पंकज त्रिवेदी
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