कभी बन कर कोल्हू के बैल
घूमते रहे गोल-गोल
ख्वाबों में रही हरी-भरी घास
बंधी रही आस
सपने होते रहे चूर-चूर
सबके करीब सबसे दूर
कितने मजबूर
ये मजदूर!
कभी सूरज ने झुलसाया तन-मन
जला डाला निवाला
लू के थपेड़ों में चपेट
भूख-प्यास ने मार डाला
समझ न पाए क्यों जमाना
इतना क्रूर
सबके करीब सबसे दूर
कितने मजबूर
ये मजदूर!
कभी कहर बना आसमाँ
बहा ले गया वजूद सारा
डूबते-उतराते निकला दम
पाया नहीं कोई किनारा
निरीह, वेबस आँखों में
उमड़ती रही बाढ़
फिर भी पेट की आग
बुझाने से रहे बहुत दूर
सबके करीब सबसे दूर
कितने मजबूर
ये मजदूर!
कभी कोई बवंडर उजाड़ कर घरौंदा
पल भर में मिटा गया हस्ती!
तिनका तिनका पैरों तले रौंदा
सोचते ही रह गए क्यों!
हर कोई हम पर ही
करके जोर आजमाइश अपनी
दिखाता है इतना गुरुर
सबके करीब सबसे दूर
कितने मजबूर
ये मजदूर!
बनाते रहे आशियाना
खुद का ना कोई ठौर ठिकाना
भटकते फिरते ये मजदूर
सबके करीब सबसे दूर
कितने मजबूर
ये मजदूर
.....कविता रावत
2 टिप्पणियां:
सटीक
शानदार
एक टिप्पणी भेजें