दलित वर्ग के प्रतिनिधि और पुरोधा थे डाॅ. भीमराव रामजी अंबेडकर - Kavita Rawat Blog, Kahani, Kavita, Lekh, Yatra vritant, Sansmaran, Bacchon ka Kona
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शुक्रवार, 14 अप्रैल 2023

दलित वर्ग के प्रतिनिधि और पुरोधा थे डाॅ. भीमराव रामजी अंबेडकर

डाॅ. भीमराव आम्बेडकर का जन्म 14 अप्रैल, 1891 को महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले के अम्बावड़े गांव में हुआ था। उनके पिता का नाम श्रीरामजी सकवाल तथा माता का नाम भीमाबाई था। उनके  "आम्बेडकर" नाम के मूल में एक रोचक प्रसंग है। जब उन्होंने स्कूल में दाखिला लिया तो अपने नाम भीमराव के आगे  ‘अम्बावडेकर’ लिखवाया। इस पर गुरु ने इसका रहस्य जानना चाहा तो उन्होंने बतलाया कि वे अम्बावड़े गांव का निवासी है, इसलिए अपने नाम के आगे अम्बावडे़कर लिख दिया है। गुरु जी अपने नाम के आगे "आम्बेडकर" लिखते थे, अतः उन्होंने भी भीमराव के आगे ‘आम्बेडकर’ उपनाम जोड़ दिया। उन्हें गुरु की यह बात अजीब लगी क्योंकि वे जानते थे कि नाम बदलने से उनकी जाति नहीं बदल सकती है। लेकिन वे यह सोचकर चुप रहे कि निश्चित ही गुरुजी ने कुछ सोच विचार कर ही ऐसा किया होगा। गुरु ने उन्हें  "अम्बावड़ेकर" से "आम्बेडकर" बनाकर उनके विचारों में क्रांति ला दी। उन्होंने सिद्ध कर दिखलाया कि- "जन्मना जायते शूद्रोकर्मणा द्विज उच्यते।"  
          बाबा आम्बेडकर को उनके बचपन में दलित और अछूत समझे जाने वाले समाज में जन्म लेने के कारण कई घटनाएं कुरेदती रहती थी। स्कूल में पढ़ने में तेज होने के बावजूद भी सहपाठी उन्हें अछूत समझकर उनसे दूर रहते थे, उनका तिरस्कार करते थे, घृणा करते थे। ऐसे ही एक बार बैलगाड़ी में बैठने के बाद जब उन्होंने स्वयं को महार जाति का बताया तो गाड़ीवान ने उन्हें गाड़ी से उतार दिया और कहा कि उसके बैठने से गाड़ी अपवित्र हो गई है जिससे धोना पड़ेगा और बैलों को भी नहलाना पड़ेगा। उनके पानी मांगने पर गाड़ीवान ने उन्हें पानी तक नहीं पिलाया। बचपन में उन्हें अनेक कटु अनुभव हुए जिनके कारण उनके मन में उच्च समझे जाने सवर्णों के प्रति घृणा उत्पन्न हो गई। वस्तुतः वह समय ही कुछ ऐसा था जब अछूतों के प्रति सवर्ण वर्ग की कोई सहानुभूति न थी। गंदे नालियों की सफाई करना, सिर पर मैला ढ़ोना तथा मरे जानवरों को फेंकना, उनकी चमड़ी निकालना जैसे कार्य अछूतों के अधिकार माने जाते थे। उन्हें जानवरों से भी हीन श्रेणी का दर्जा दिया जाता था। दलित जाति की यह दुर्गति देखकर ही वे दलितों के उधार के लिए दृढ़ संकल्पित हुए।  शिक्षा समाप्ति के पश्चात् वे बड़ौदा महाराजा के रियासत में सैनिक सचिव पद पर नियुक्त हुए लेकिन अपने अधीनस्थ सवर्णों द्वारा छुआछूत बरते जाने के कारण उन्होंने वह पद त्याग दिया। दलितों की उपेक्षा, उत्पीड़न और छुआछूत से क्षुब्ध होकर उन्होंने दलित वर्ग का प्रतिनिधित्व करते हुए राष्टव्यापी आंदोलन चलाया। उन्होंने जातीय व्यवस्था की मान्यताओं को उखाड़ फेंकने के लिए एक साहसी क्रांतिकारी भूमिका निभाई। उन्होंने  धर्म के प्रति अपना दृष्टिकोण प्रकट करते हुए कहा- “जो धर्म विषमता का समर्थन करता है, उसका हम विरोध करते हैं। अगर हिन्दू धर्म अस्पृश्यता का धर्म है तो उसे समानता का धर्म बनना चाहिए। हिन्दू धर्म को चातुर्वण्य निर्मूलन की आवश्यकता है। चातुर्वण्य व्यवस्था ही अस्पृश्यता की जननी है। जाति भेद और अस्पृश्यता ही विषमता के रूप हैं। यदि इन्हें जड़ से नष्ट नहीं किया गया तो अस्पृश्य वर्ग इस धर्म को निश्चित रूप से त्याग देगा।“  
          डाॅ. आम्बेडकर दलितों के मसीहा के साथ ही ऐतिहासिक महापुरुष भी हैं। उन्होंने अपने आदर्शों और सिद्धांतों के लिए आजीवन संघर्ष किया जिसका सुखद परिणाम आज हम दलितों में आई हुई जागृति अथवा नवचेतना के रूप में देख रहे हैं। वे न केवल दलित वर्ग के प्रतिनिधि और पुरोधा थे, अपितु अखिल मानव समाज के शुभचिंतक महामानव थे। भारतीय संविधान के निर्माण में उनका योगदान सर्वोपरि है। उन्हें जब संविधान लेखन समिति के अध्यक्ष पद की जिम्मेदारी सौंपी गई तो उन्होंने कहा- "राष्ट्र ने एक बहुत बड़ी जिम्मेदारी मुझे सौंपी है। अपनी पूरी शक्ति केन्द्रीभूत कर मुझे यह काम करना चाहिए।"  इस दायित्व को निभाने के लिए उनके अथक परिश्रम को लेखन समिति के एक वरिष्ठ सदस्य श्री टी.टी.कृष्णामाचारी ने रेखांकित करते हुए कहा कि-"लेखन समिति के सात सदस्य थे, किन्तु संविधान तैयार करने की सारी जिम्मेदारी अकेले आम्बेडकर जी को ही संभालनी पड़ी। उन्होंने जिस पद्धति  और परिश्रम से काम किया, उस कारण वे सभागृह के आदर के पात्र हैं। राष्ट्र उनका सदैव ऋणी रहेगा।" 
          आज लोकसभा का कक्ष उनकी प्रतिमा से अलंकृत है जिस पर प्रतिवर्ष उनकी जयंती पर देश के बड़े-बड़े नेता और सांसद अपने श्रद्धासुमन अर्पित करते हैं। उनका व्यक्तित्व और कृतित्व महान् है। वे सच्चे अर्थों में भारतरत्न हैं। उनकी जयंती संपूर्ण राष्ट्र के लिए महाशक्ति का अपूर्व प्रेरणा स्रोत है। इस अवसर पर उनके जीवन और कार्यों का स्मरण करना हम सबके लिए अपनी भीतरी आत्मशक्ति को जगाना है। आइए, हम उनकी जयंती के अवसर पर संकल्प लें कि हम उनके विचारों और आदर्शों केा अपनाकर अपने जीवन को देश-प्रेम और मानव-सेवा में समर्पित करने का प्रयास करेंगे, जो हमारी उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।