26 जनवरी और लोकरंग का आकर्षण - Kavita Rawat Blog, Kahani, Kavita, Lekh, Yatra vritant, Sansmaran, Bacchon ka Kona
ब्लॉग के माध्यम से मेरा प्रयास है कि मैं अपनी कविता, कहानी, गीत, गजल, लेख, यात्रा संस्मरण और संस्मरण द्वारा अपने विचारों व भावनाओं को अपने पारिवारिक और सामाजिक दायित्व निर्वहन के साथ-साथ सरलतम अभिव्यक्ति के माध्यम से लिपिबद्ध करते हुए अधिकाधिक जनमानस के निकट पहुँच सकूँ। इसके लिए आपके सुझाव, आलोचना, समालोचना आदि का हार्दिक स्वागत है।

शुक्रवार, 24 जनवरी 2025

26 जनवरी और लोकरंग का आकर्षण


कभी बहुत वर्ष पहले जब 26 जनवरी यानी गणतंत्र दिवस का दिन करीब आता तो मन राजधानी दिल्ली के 'इंडिया गेट' के इर्द-गिर्द मंडराने लगता था। तब घर तंत्र से दो चार नहीं हुए थे। बेफिक्री से घूम-फिरने में एक अलग ही आनंद था। 26 जनवरी की गहमागहमी देखने इंडिया गेट के आस-पास रहने वाले किसी करीबी नाते-रिश्तेदार के यहां 1-2 दिन पहले ही आ धमकते। घर परिवार और फिर गाँव से लेकर देश-विदेश में रह रहे अपने पराये सबकी खैर-खबर का जो क्रम चल पड़ता तो कब आधी रात बीत जाती पता ही नहीं चलता। 26 जनवरी के दिन तो घुप्‍प अंधियारे में ही कडकडाती ठण्ड से बेखबर दल-बल के साथ इंडिया गेट की ओर कूच कर जाते थे। वहां अग्रिम पंक्ति में पड़ाव डालकर समारोह को आदि से अंत तक बिना टस से मस हुए देखकर ही उठते। रास्ते भर चर्चाओं का दौर चलता। घर पहुँचते ही मोहल्ले भर को भी आँखों देखा हाल सुनाकर ही दम लेते। अब तो जब से घर तंत्र सँभाला है , जिंदगी की आपाधापी के बीच टेलीविजन पर ही घर-परिवार के लिए चाय-नाश्ते की तैयारी के बीच-बीच में झलकियाँ देखकर ही तसल्ली करने के आदी हो चुके हैं।
इस बार तो २६ जनवरी के साथ ही वसंत ऋतु का प्रथम उत्सव वसंत पंचमी भी निकल गयी। भला हो घर के बगीचे की छोटी सी क्यारी में खिली वासंती फूलों से लदी सरसों का! वसंत के आगमन की सूचना मुझ तक उसने ही पहुँचाई । गाँव में वसंत की सूचना तो प्रकृति के माध्यम से सहज रूप से मिल जाती हैं लेकिन शहर में वसंत को तलाशना कतई आसान काम नहीं है। इसी वासंती रंग की तलाश में मैं 26 जनवरी से 1 फरवरी तक लोकसंस्कृति संरक्षक रवीन्द्र भवन में लगने वाले लोकरंग की प्रस्तुतियां देखने पहुंची। वहां मधुबनी पेंटिंग से भगवान राम और सीता के विवाह के दृश्यों से सजे मंच पर थिरकते लोक कलाकारों की मोहक प्रस्तुतियां देख विश्वास हो चला कि शहर में भी वसंत का आगमन हो चुका है। विभिन्न राज्यों के लोक कलाकारों,विदेशी नृत्य प्रस्तुतियों और बेटियों के सर्जना के कला संसार में मन यूँ डूबा कि हर शाम कदम बरबस रवीन्‍द्र भवन की ओर खिंचे चले जाते। रंग-बिरंगे परिधानों से सजे लोक कलाकारों की सधी प्रस्तुतियां में डूबा मन कविवर बिहारी के वासंती दोहे जैसा दिखने लगता-
"छबि रसाल सौरभ सने, मधुर माधवी गन्ध
ठौर-ठौर झूमत झपट, झौंर-झौंर मधु अन्ध ।।"
     
लोकरंग में प्रदेश के विभिन्न अंचलों के खास व्यंजनों का लुत्फ़ उठाते हुए विशिष्ट हस्तशिल्प और मूर्ति कलाकृतियाँ देखते ही बनती थी। पुतली प्रदर्शनी और कार्यशाला के अंतर्गत विभिन्न प्रकार की मनमोहक गुड़ियाँ देखकर बचपन के वे दिन याद आने लगे जब इनसे तरह-तरह के खेल खेला करते थे। तब शुद्ध मनोरंजन के साथ शिक्षा,स्वास्थ्य के लिए जागरूक कराते पुतली नृत्य देखने की बात ही निराली थी। अब तो आधुनिकता की चपेट में आकर यह कला लुप्तप्राय: सी हो चली है। अपनी पारंपरिक लोकसंस्कृति से सबका दिल जीतने वाले इन नृत्यों, गीतों को देख सुनकर, यह महसूस ही नहीं होता है कि जातिदंश की पीड़ा या श्रम विशेष में व्याप्त शोषण, उत्पीडन, घोर कष्ट भरे यातनामय जीवनचर्या जीते लोगों की अभिव्यक्ति इतनी सुन्दर स्वस्थ भी हो सकती है, जो आज भी थके हारे मन को तरोताजगी से भरने में आधुनिक मनोरंजन के साधनों से कहीं भी उन्‍नीस नहीं है।
   ...कविता रावत