बह चुके पानी से कभी चक्की नहीं चलाई जा सकती है
लोहे से कई ज्यादा सोने की जंजीरें मजबूत होती है
लोहे से कई ज्यादा सोने की जंजीरें मजबूत होती है
चांदी के एक तीर से पत्थर में भी छेद हो सकता है
एक मुट्ठी धन दो मुट्ठी सच्चाई पर भारी पड़ता है
निर्धन मनुष्य की जान-पहचान बहुत मामूली होती है
गरीब की जवानी और पौष की चांदनी बेकार जाती है
घर में दाने हों तो उसके पगले भी सयाने बनते हैं
गरीब अपने घर में भी परदेशी की तरह रहते हैं
अवसर बादल की तरह देखते-देखते गायब हो जाता है
बेवकूफ डंडा तो समझदार इशारे की भाषा समझता है
जरूरत से ज्यादा समझदार, समझदार नहीं कहलाते हैं
भले लोग भेड़ जैसे जो किसी को हानि नहीं पहुँचाते हैं
...कविता रावत
24 टिप्पणियां:
प्रत्येक पंक्ति एक गहन निहितार्थ के साथ! बहुत सुंदर।
सादर नमस्कार ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (26-7-21) को "औरतें सपने देख रही हैं"(चर्चा अंक- 4137) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
--
कामिनी सिन्हा
कृपया २६ की जगह २७ पढ़े
कल थोड़ी व्यस्तता है इसलिए आमंत्रण एक दिन पहले ही भेज रही हूँ।
सारगर्भित अभिव्यक्ति।
सादर
सार्थकता के साथ अभिनव कृति।
"भले लोग भेड़ जैसे जो किसी को हानि नहीं पहुँचाते हैं" - रचना की हरेक पंक्ति तथाकथित "भेड़ों" की कटु सत्य की पोल खोलती हुई सी .. शायद ...
अवसर बादल की तरह देखते-देखते गायब हो जाता है
बेवकूफ डंडा तो समझदार इशारे की भाषा समझता है
जरूरत से ज्यादा समझदार, समझदार नहीं कहलाते हैं
भले लोग भेड़ जैसे जो किसी को हानि नहीं पहुँचाते हैं..सटीक सार्थक रचना।
एक मुट्ठी धन दो मुट्ठी सच्चाई पर भारी पड़ता है
निर्धन मनुष्य की जान-पहचान बहुत मामूली होती है
गरीब की जवानी और पौष की चांदनी बेकार जाती है
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गागर में सागर भरती ज्ञानवर्द्धक पंक्तियों के लिए आपको ढेरों बधाईयां कविता जी। गहरा अर्थ लिए सुंदर सृजन। सादर।
हर पंक्ति कुछ न कुछ विशेष कहती हुई ।
विचारणीय ।
प्रत्येक पंक्ति बहुत ही बेहतरीन और उम्दा है!
सारगर्भित सृजन।
बहुत ही सुंदर व सारगर्भित रचना
अत्यंत प्रभावशाली ।
भले लोग भेड़ जैसे ही होते हैं। बहुत अच्छी, सारगर्भित रचना!--ब्रजेंद्रनाथ
बहुत सुंदर रचना
वाह लाजबाव पंक्तियां, अपना प्रभाव डालती हुई
भोगा हुआ यथार्थ है इन पंक्तियों में - (शायद) आपका और मेरा भी। इसीलिए एक-एक शब्द दिल में उतर गया।
सुन्दर कविता !
मेरा एक सवाल है -
भले लोग भेड़ या फिर गधे ही क्यों होते हैं?
परसाई जी ने तो किसी से पिट-पिट कर भी उस से शराफ़त करने वाले को केंचुआ कहा है.
बेहतरीन भाव !!
बहुत खूब ...
आपका लिखा हर छंद आपके अपने निराले अंदाज़ की बयानी है ... अपनी बात को प्रखर, स्पष्ट और अनोखे अंदाज़ से रखा है आपने ... बहुत सार्थक लिखा है ... सच को सच बिना लाग लपेट के ...
गहरी बात
निर्धन मनुष्य की जान-पहचान बहुत मामूली होती है
गरीब की जवानी और पौष की चांदनी बेकार जाती है
हर पंक्ति गहरी बात कहती हुई। कमाल की उक्तियाँ हैं।
बेहतरीन भाव !
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