वो वसंत की चितचोर डाली। कुछ शर्माती कुछ सकुचाती - Kavita Rawat Blog, Kahani, Kavita, Lekh, Yatra vritant, Sansmaran, Bacchon ka Kona
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शनिवार, 2 नवंबर 2024

वो वसंत की चितचोर डाली। कुछ शर्माती कुछ सकुचाती


कुछ शर्माती कुछ सकुचाती
जब आती बाहर वो नहाकर
मन ही मन कुछ कहती
उलझे लट सुलझा सुलझाकर

झटझट झटझट झरझर झरझर
बूंदें गिरतीं बालों से पल-पल
दिखतीं ये मोती सी मुझको
या ज्यों झरता झरने का जल

झर झर झरता झरने सा जल
झर झर झरता झरने सा जल  

तिरछी नजर घुमाती वो
अधरों पे  मदिर मुस्कान लिए
कभी निहारे एकटक होकर 
पलकों ज्योँ आराम दिए

हँसमुख चेहरा लुभाता उसका
सूरत दिखती भोली-भली
कभी लगती खिली फूल सी
कभी दिखती कच्‍ची कली

खिला यौवन उपवन जैसा 
नाजुक कली सुकोमल गात  
वो वसंत की चितचोर डाली
मैं पतझड़ सा बिखरा पात